अब उनतालीसवें अध्याय का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अन्त्येष्टि कर्म का विषय कहते हैं ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुमको योग्य है कि (साधिपतिकेभ्यः) इन्द्रियादि के अधिपति जीव के साथ वर्त्तमान (प्राणेभ्यः) जीवन के तुल्य प्राणों के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (पृथिव्यै) भूमि के लिये (स्वाहा) सत्यवाणी (अग्नये) अग्नि के अर्थ (स्वाहा) सत्यक्रिया (अन्तरिक्षाय) आकाश में चलने के लिये (स्वाहा) सत्यवाणी (वायवे) वायु की प्राप्ति के अर्थ (स्वाहा) सत्यक्रिया (दिवे) विद्युत् की प्राप्ति के अर्थ (स्वाहा) सत्यवाणी और (सूर्य्याय) सूर्य्यमण्डल की प्राप्ति के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया को यथावत् संयुक्त करो ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - इस अध्याय में अन्त्येष्टिकर्म जिसको नरमेध, पुरुषमेध और दाहकर्म भी कहते हैं। जब कोई मनुष्य मरे तब शरीर की बराबर तोल घी लेकर उस में प्रत्येक सेर में एक रत्ती कस्तूरी, एक मासा केसर और चन्दन आदि काष्ठों को यथायोग्य सम्हाल के जितना ऊर्ध्वबाहु पुरुष होवे, उतनी लम्बी, साढ़े तीन हाथ चौड़ी और इतनी ही गहरी, एक बिलस्त नीचे तले में वेदी बनाकर, उसमें नीचे से अधवर तक समिधा भरकर, उस पर मुर्दे को धर कर, फिर मुर्दे के इधर-उधर और ऊपर से अच्छे प्रकार समिधा चुन कर, वक्षःस्थल आदि में कपूर धर, कपूर से अग्नि को जलाकर, चिता में प्रवेश कर जब अग्नि जलने लगे, तब इस अध्याय के इन स्वाहान्त मन्त्रों की बार-बार आवृत्ति से घी का होम कर मुर्दे को सम्यक् जलावें। इस प्रकार करने में दाह करनेवालों को यज्ञकर्म के फल की प्राप्ति होवे। और मुर्दे को न कभी भूमि में गाड़ें, न वन में छोड़ें, न जल में डुबावें, बिना दाह किये सम्बन्धी लोग महापाप को प्राप्त होवें, क्योंकि मुर्दे के बिगड़े शरीर से अधिक दुर्गन्ध बढ़ने के कारण चराचर जगत् में असंख्य रोगों की उत्पत्ति होती है, इससे पूर्वोक्त विधि के साथ मुर्दे के दाह करने में ही कल्याण है, अन्यथा नहीं ॥१ ॥