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इ॒षे पि॑न्वस्वो॒र्जे पि॑न्वस्व॒ ब्रह्म॑णे पिन्वस्व क्ष॒त्राय॑ पिन्वस्व॒ द्यावा॑पृथिवी॒भ्यां॑ पिन्वस्व। धर्मा॑सि सु॒धर्मामे॑न्य॒स्मे नृ॒म्णानि॑ धारय॒ ब्र॒ह्म॑ धारय क्ष॒त्रं धा॑रय॒ विशं॑ धारय ॥१४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒षे। पि॒न्व॒स्व॒। ऊ॒र्जे। पि॒न्व॒स्व॒। ब्रह्म॑णे। पि॒न्व॒स्व॒। क्ष॒त्राय॑। पि॒न्व॒स्व॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। पि॒न्व॒स्व॒ ॥ धर्म॑। अ॒सि॒। सु॒धर्मेति॑ सु॒ऽधर्म॑। अमे॑नि। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। नृ॒म्णानि॑। धा॒र॒य॒। ब्रह्म॑। धा॒र॒य॒। क्ष॒त्रम्। धा॒र॒य॒। विश॑म्। धा॒र॒य॒ ॥१४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:38» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (धर्म) सत्य के धारक (सुधर्म) सुन्दर धर्मयुक्त पुरुष वा स्त्री ! तू (अमेनि) हिंसा धर्म से रहित (असि) है, जिससे (अस्मे) हमारे लिये (नृम्णानि) धनों को (धारय) धारण कर (ब्रह्म) वेद वा ब्राह्मण को (धारय) धारण कर (क्षत्रम्) वा राज्य को (धारय) धारण कर (विशम्) प्रजा को (धारय) धारण कर, उससे (इषे) अन्नादि के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर (ऊर्जे) बल आदि के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर (ब्रह्मणे) वेद विज्ञान परमेश्वर वा वेदज्ञ ब्राह्मण के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर (क्षत्राय) राज्य के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर और (द्यावापृथिवीभ्याम्) भूमि और सूर्य के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - जो स्त्री-पुरुष अहिंसक धर्मात्मा हुए आप ही धन, विद्या, राज्य और प्रजा को धारण करें, वे अन्न, बल, विद्या और राज्य को पाकर भूमि और सूर्य के तुल्य प्रत्यक्ष सुखवाले होवें ॥१४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इषे) अन्नाद्याय (पिन्वस्व) सेवस्व (ऊर्जे) बलाद्याय (पिन्वस्व) (ब्रह्मणे) वेदविज्ञानाय परमेश्वराय वेदविदे ब्राह्मणाय वा (पिन्वस्व) (क्षत्राय) राज्याय (पिन्वस्व) (द्यावापृथिवीभ्याम्) भूमिसूर्य्याभ्याम् (पिन्वस्व) (धर्म) सत्यधारक (असि) (सुधर्म) शोभनो धर्मो यस्य तत्सम्बुद्धौ (अमेनि) अहिंसकः सन्। अत्र सुपां सुलुग् [अ०७.१.३९] इति सुलोपः। (अस्मे) अस्मभ्यम् (नृम्णानि) धनानि (धारय) (ब्रह्म) वेदं ब्राह्मणं वा (धारय) (क्षत्रम्) राज्यं वा (धारय) (विशम्) प्रजाम् (धारय) ॥१४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे धर्म सुधर्म पुरुष वा स्त्रि वा ! त्वममेन्यसि येनाऽस्मे नृम्णानि धारय, ब्रह्म धारय, क्षत्रं धारय, विशं धारय, तेनेषेपिन्वस्वोर्जे पिन्वस्व, ब्रह्मणे पिन्वस्व, क्षत्राय पिन्वस्व, द्यावापृथिवीभ्यां पिन्वस्व ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - ये स्त्रीपुरुषा अहिंसका धार्मिकाः सन्तः स्वयं धनानि विद्यां राज्यं प्रजां च धृत्वाऽन्यान् धारयेयुस्तेऽन्नबलविद्याराज्यानि प्राप्य भूमिसूर्य्यवद् दृष्टसुखा जायेरन् ॥१४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे स्री-पुरुष अहिंसक व धर्मात्मा असतात ते स्वतः धन, विद्या, राज्य व प्रजा यांना धारण करतात. त्यांना अन्न, बळ, विद्या व राज्य प्राप्त होऊन भूमी व सूर्याप्रमाणे ते प्रत्यक्ष सुखकारक असतात.