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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जो आप (इन्द्रः) बिजुली के तुल्य (विश्वस्य) संसार के बीच (राजति) प्रकाशमान हैं, उन आपकी कृपा से (नः) हमारे (द्विपदे) पुत्रादि के लिये (शम्) सुख (अस्तु) होवे और हमारे (चतुष्पदे) गौ आदि के लिये (शम्) सुख होवे ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे जगदीश्वर ! जिससे आप सर्वत्र सब ओर से अभिव्याप्त मनुष्य, पश्वादि को सुख चाहनेवाले हैं, इससे सबको उपासना करने योग्य हैं ॥८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(इन्द्रः) विद्युदिवेश्वरः (विश्वस्य) संसारस्य मध्ये (राजति) प्रकाशते (शम्) सुखम् (नः) अस्माकम् (अस्तु) (द्विपदे) पुत्राद्याय (शम्) (चतुष्पदे) गवाद्याय ॥८ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! यो भवानिन्द्र इव विश्वस्य राजति, तस्य भवतः कृपया नो द्विपदे शमस्तु नश्चतुष्पदे शमस्तु ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे जगदीश्वर ! यतो भवान् सर्वत्राऽभिव्यापकः मनुष्यपश्वादीनां सुखमिच्छुरसि, तस्मात् सर्वैरुपासनीयोऽसि ॥८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. (विद्युतप्रमाणे) या जगात प्रकाशमान असणाऱ्या परमेश्वरा ! तू सर्वत्र व्याप्त आहेस व मनुष्य आणि पशू इत्यादींचे सुख इच्छितोस त्यामुळेच सर्वांनी उपासना करावी असा आहेस.