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परं॑ मृत्यो॒ऽ अनु॒ परे॑हि॒ पन्थां॒ यस्ते॑ऽ अ॒न्यऽ इत॑रो देव॒याना॑त्। चक्षु॑ष्मते शृण्व॒ते ते॑ ब्रवीमि॒ मा नः॑ प्र॒जा री॑रिषो॒ मोत वी॒रान् ॥७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पर॑म्। मृत्यो॒ऽइति॒ मृत्यो॑। अनु॑। परा॑। इ॒हि॒। पन्था॑म्। यः। ते॒। अ॒न्यः। इत॑रः। दे॒व॒याना॒दिति॑ देव॒ऽयाना॑त् ॥ चक्षु॑ष्मते। शृ॒ण्व॒ते। ते॒। ब्र॒वी॒मि॒। मा। नः॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। री॒रि॒षः॒। री॒रि॒ष॒ऽइति॑ रिरिषः। मा। उ॒त। वी॒रान् ॥७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:35» मन्त्र:7


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! (या) जो (ते) तेरा (देवयानात्) जिस मार्ग से विद्वान् लोग चलते उससे (इतरः) भिन्न (अन्यः) और मार्ग है, उस (पन्थाम्) मार्ग को (मृत्यो) मृत्यु (परा, इहि) दूर जावे, जिस कारण तू (परम्) उत्तम देवमार्ग को (अनु) अनुकूलता से प्राप्त हो, उसी से (चक्षुष्मते) उत्तम नेत्रवाले (शृण्वते) सुनते हुए (ते) तेरे लिये (ब्रवीमि) उपदेश करता हूँ, जैसे मृत्यु (नः) हमारी प्रजा को न मारे और वीर पुरुषों को भी न मारे, वैसे तू (प्रजाम्) सन्तानादि को (मा, रीरिषः) मत मार वा विषयादि से नष्ट मत कर (उत) और (वीरान्) विद्या और शरीर के बल से युक्त वीर पुरुषों को (मा) मत नष्ट कर ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जीवनपर्यन्त विद्वानों के मार्ग से चल के उत्तम अवस्था को प्राप्त हों और ब्रह्मचर्य के विना स्वयंवर विवाह करके कभी न्यून अवस्था की प्रजा सन्तानों को न उत्पन्न करें और न इन सन्तानों को ब्रह्मचर्य के अनुष्ठान से अलग रक्खें ॥७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(परम्) प्रकृष्टम् (मृत्यो) मृत्युः। अत्र व्यत्ययः। (अनु) (परा) (इहि) दूरं गच्छतु (पन्थाम्) मार्गम् (यः) (ते) तव (अन्यः) (इतरः) भिन्नः (देवयानात्) देवा विद्वांसो यान्ति यस्मिंस्तस्मात् (चक्षुष्मते) प्रशस्तं चक्षुर्विद्यते यस्य तस्मै (शृण्वते) यः शृणोति तस्मै (ते) तुभ्यम् (ब्रवीमि) उपदिशामि (मा) (नः) अस्माकम् (प्रजाम्) (रीरिषः) हिंस्याः (मा) (उत) अपि (वीरान्) प्राप्तविद्यान् शरीरबलयुक्तान् ॥७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! यस्ते देवयानादितरोऽन्यो मार्गोऽस्ति, तं पन्थां मृत्यो परेहि मृत्युः परैतु, यतस्त्वं परं देवयानमन्विहि। अत एव चक्षुष्मते शृण्वतेऽहं ते ब्रव्रीमि, यथा मृत्युर्नः प्रजां न हिंस्यादुतापि वीरान्न हन्यात्, तथा त्वं प्रजां मा रीरिष उतापि वीरान् मा रीरिषः ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यावज्जीवनं तावद्विद्वन्मार्गेण गत्वा परमायुर्लब्धव्यम्। कदाचिद् विना ब्रह्मचर्येण स्वयंवरं कृत्वाऽल्पायुषीः प्रजा नोत्पादनीया, न चैतासां ब्रह्मचर्यानुष्ठानेन वियोगः कर्त्तव्यः ॥७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी आजीवन विद्वानाच्या मार्गाने जावे व उत्तम अवस्था प्राप्त करून घ्यावी. ब्रह्मचर्याखेरीज व स्वयंवर विवाहाखेरीज विवाह करू नये. दुर्बल प्रजा उत्पन्न करू नये व संतानांनाही ब्रह्मचर्य पालन करावयास लावावे.