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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे राजपुरुषो ! जो (इमे) ये तुम लोग (गाम्) वाणी वा पृथिवी को (परि, अनेषत) स्वीकार करो (अग्निम्) अग्नि को (परि, अहृषत) सब ओर से हरो अर्थात् कार्य में लाओ। इन (देवेषु) विद्वानों में (श्रवः) अन्न को (अक्रत) करो, इस प्रकार के (इमान्) आप लोगों को (कः) कौन (आ, दधर्षति) धमका सकता है ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजपुरुष पृथिवी के समान धीर, अग्नि के तुल्य तेजस्वी, अन्न के समान अवस्थावर्द्धक होते हुए धर्म से प्रजा की रक्षा करते हैं, वे अतुल राजलक्ष्मी को पाते हैं ॥१८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(परि) सर्वतः (इमे) (गाम्) वाणीं पृथिवीं वा (अनेषत) (परि) सर्वतः (अग्निम्) अहृषत) हरत (देवेषु) विद्वत्सु (अक्रत) कुरुत। अत्र मन्त्रे घस० [अ०२.४.८०] इति च्लेर्लुक्। (श्रवः) अन्नम्। (कः) (इमान्) (आ) (दधर्षति) धर्षयितुं शक्नोति। अत्र लेटि व्यत्ययेन श्लुः ॥१८ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे राजजना ! य इमे यूयं गां पर्य्यनेषताऽग्निं पर्य्यहृषत। एषु देवेषु श्रवोऽक्रतैवंभूतानिमान् भवतः क आ दधर्षति ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजजनाः पृथिवीवद्धीरा अग्निवत् तेजस्विनोऽन्नवदायुष्कराः सन्तो धर्मेण प्रजां रक्षन्ति, तेऽतुलां राजश्रियमाप्नुवन्ति ॥१८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजपुरुष पृथ्वीप्रमाणे धैर्यवान, अग्नीप्रमाणे तेजस्वी, अन्नाप्रमाणे आयुवर्धक व धर्मयुक्त बनून प्रजेचे रक्षण करतात त्यांना अतुल राज्यलक्ष्मी प्राप्त होते.