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सु॒मि॒त्रि॒या न॒ऽआप॒ऽओष॑धयः सन्तु दुर्मित्रि॒यास्तस्मै॑ सन्तु॒। यो᳕ऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः ॥१२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒मि॒त्रिया इति॑ सुऽमित्रि॒याः। नः॒। आपः॑। ओष॑धयः। स॒न्तु॒। दु॒र्मि॒त्रि॒या इति॑ दुःऽमित्रि॒याः। तस्मै॑। स॒न्तु॒ ॥ यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः ॥१२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:35» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (आपः) प्राण वा जल तथा (ओषधयः) सोमादि ओषधियाँ (नः) हमारे लिये (सुमित्रियाः) सुन्दर मित्रों के तुल्य हितकारिणी (सन्तु) होवें, तुम्हारे लिये भी वैसी हों। (यः) जो (अस्मान्) हम धर्मात्माओं से (द्वेष्टि) द्वेष करता (च) और (यम्) जिस दुष्टाचारी से (वयम्) हम लोग (द्विष्मः) अप्रीति करें, (तस्मै) उसके लिये वे पदार्थ (दुर्मित्रियाः) शत्रुओं के तुल्य दुःखदायी (सन्तु) होवें ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - जो राग-द्वेष आदि दोषों को छोड़ कर सबमें अपने आत्मा के तुल्य वर्त्ताव करते हैं, उन धर्मात्माओं के लिये सब जल, ओषधि आदि पदार्थ सुखकारी होते और जो स्वार्थ में प्रीति तथा दूसरों से द्वेष करनेवाले हैं, उन अधर्मियों के लिये ये सब उक्त पदार्थ दुःखदायी होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि धर्मात्माओं के साथ प्रीति और दुष्टों का भी चित्त से सदा कल्याण ही चाहें ॥१२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

(सुमित्रियाः) शोभना मित्रा इव (नः) अस्मभ्यम् (आपः) प्राणा जलानि वा (ओषधयः) सोमाद्याः (सन्तु) (दुर्मित्रियाः) दुर्मित्राः शत्रव इव दुःखप्रदाः (तस्मै) (सन्तु) (यः) (अस्मान्) धर्मात्मनः (द्वेष्टि) अप्रसन्नयति (यम्) दुष्टाचारिणम् (च) (वयम्) (द्विष्मः) अप्रीतयामः ॥१२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! या आप ओषधयो नोस्मभ्यं सुमित्रियाः सन्तु, ता युष्मभ्यमपि तादृशो भवन्तु, योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तस्मा एता दुर्मित्रियाः सन्तु ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - ये रागद्वेषादिदोषान् विहाय सर्वेषु स्वात्मवद्वर्त्तन्ते तेभ्यो धर्मात्मभ्यः सर्वे जलौषध्यादयः पदार्थाः सुखकरा भवन्ति। ये च स्वात्मपोषकाः परद्वेषिणस्तेभ्योऽधर्मात्मभ्यः सर्व एते दुःखकरा भवन्ति, मनुष्यैर्धर्मात्मभिः सह प्रीतिर्दुष्टात्मभिः सहाऽप्रीतिश्च सततं कार्या, परन्तु तेषामप्यन्तःकरणेन कल्याणमेषणीयम् ॥१२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे रोग द्वेष इत्यादी दोष सोडून सर्वांशी आपल्या आत्म्याप्रमाणे वागतात त्या धर्मात्मा व्यक्तीसाठी सर्व जल, औषधे इत्यादी पदार्थ सुखकारी असतात व जे स्वार्थी आणि दुसऱ्यांचा द्वेष करतात त्या अधार्मिक लोकांसाठी वरील सर्व पदार्थ दुःखदायी असतात. माणसांनी धर्मात्मा लोकांबरोबर प्रेम व दुष्टांबरोबर सतत अप्रीती करावी; परंतु त्या दुष्टांचेही मनाने नेहमी कल्याणच इच्छावे.