वांछित मन्त्र चुनें

स॒प्तऽऋष॑यः॒ प्रति॑हिताः॒ शरी॑रे स॒प्त र॑क्षन्ति॒ सद॒मप्र॑मादम्। स॒प्तापः॒ स्वप॑तो लो॒कमी॑यु॒स्तत्र॑ जागृतो॒ऽअस्व॑प्नजौ सत्र॒सदौ॑ च दे॒वौ ॥५५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒प्त। ऋष॑यः। प्रति॑हिता॒ इति॒ प्रति॑ऽहिताः। शरी॑रे। स॒प्त। र॒क्ष॒न्ति॒। सद॑म्। अप्र॑माद॒मित्य॑प्रऽमादम् ॥ स॒प्त। आपः॑। स्वप॑तः। लो॒कम्। ई॒युः॒। तत्र॑। जा॒गृ॒तः॒। अस्व॑प्नजा॒वित्यस्व॑प्नऽजौ। स॒त्र॒सदा॒विति॑ स॒त्र॒ऽसदौ॑। च॒। दे॒वौ ॥५५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:55


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शरीर और इन्द्रियों का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (सप्त, ऋषयः) विषयों अर्थात् शब्दादि को प्राप्त करानेवाले पाँच ज्ञानेन्द्रिय मन और बुद्धि ये सात ऋषि इस (शरीरे) शरीर में (प्रतिहिताः) प्रतीति के साथ स्थिर हुए हैं, वे ही (सप्त) सात (अप्रमादम्) जैसे प्रमाद अर्थात् भूल न हो, वैसे (सदम्) ठहरने के आधार शरीर की (रक्षन्ति) रक्षा करते। वे (स्वपतः) सोते हुए जन के (आपः) शरीर को व्याप्त होनेवाला उक्त (सप्त) सात (लोकम्) जीवात्मा को (ईयुः) प्राप्त होते हैं, (तत्र) उस लोक प्राप्ति समय में (अस्वप्नजौ) जिनको स्वप्न कभी नहीं होता (सत्रसदौ) जीवात्माओं की रक्षा करनेवाले (च) और (देवौ) स्थिर उत्तम गुणोंवाले प्राण और अपान (जागृतः) जागते हैं ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - इस शरीर में स्थिर व्यापक विषयों के जाननेवाले अन्तःकरण के सहित पाँच ज्ञानेन्द्रिय ही निरन्तर शरीर की रक्षा करते और जब जीव सोता है, तब उसी को आश्रय कर तमोगुण के बल से भीतर को स्थिर होते, किन्तु बाह्य विषय का बोध नहीं कराते और स्वप्नावस्था में जीवात्मा की रक्षा में तत्पर तमोगुण से न दबे हुए प्राण और अपान जागते हैं, अन्यथा यदि प्राण अपान भी सो जावें तो मरण का ही सम्भव करना चाहिये ॥५५ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शरीरेन्द्रियविषयमाह ॥

अन्वय:

(सप्त) पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्च (ऋषयः) विषयप्रापकाः (प्रतिहिताः) प्रतीत्या धृताः (शरीरे) (सप्त) (रक्षन्ति) (सदम्) सीदन्ति यस्मिंस्तत् (अप्रमादम्) (सप्त) (आपः) आप्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति शरीरमित्यापः (स्वपतः) शयनं प्राप्तस्य (लोकम्) जीवात्मानम् (ईयुः) यन्ति (तत्र) लोकगमनकाले (जागृतः) (अस्वप्नजौ) स्वप्नो न जायते ययोस्तौ (सत्रसदौ) सतां जीवात्मनां त्राणं सत्रं तत्र सीदतस्तौ (च) (देवौ) दिव्यस्वरूपौ प्राणापानौ ॥५५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये सप्तर्षयः शरीरे प्रतिहितास्त एव सप्ताप्रमादं यथा स्यात्, तथा सदं रक्षन्ति। ते स्वपतः सप्ताऽपः लोकमीयुस्तत्राऽस्वप्नजौ सत्रसदौ च देवौ जागृतः ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - अस्मिञ्छरीरे स्थिराणि व्यापकानि विषयबोधकानि सान्तःकरणानि ज्ञानेन्द्रियाण्येव सातत्येन शरीरं रक्षन्ति। यदा च जीवः स्वपिति तदा तमेवाश्रित्य तमोबलेनान्तर्मुखानि तिष्ठन्ति, बाह्यविषयं न बोधयन्ति, स्वप्नावस्थायां च जीवात्मरक्षणतत्परौ तमोगुणानभिभूतौ प्राणापानौ जागरणं कुर्वाते, अन्यथा यद्यनयोरपि स्वप्नः स्यात् तदा तु मरणमेव सम्भाव्यमिति ॥५५ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विषय जाणणारी पाच ज्ञानेंद्रिये अंतःकरणासह शरीरात स्थिर व व्यापक असून, शरीराचे रक्षण करतात. जेव्हा जीव निद्राधीन होतो तेव्हा त्याच्या आश्रयाने तमोगुणाच्या बलाने ती शरीरात स्थिर होतात व त्यांना बाह्य विषयांचा बोध होत नाही. स्वप्नावस्थेमध्ये जीवाच्या रक्षणासाठी तत्पर असलेले व तमोगुणांनी न दबलेले प्राण व अपान जाग्रत असतात. अन्यथा ते जर निद्राधीनं झाले तर मृत्यूच होईल.