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न तद्रक्षा॑सि॒ न पि॑शा॒चास्त॑रन्ति दे॒वाना॒मोजः॑ प्रथम॒जꣳ ह्ये॒तत्। यो बि॒भर्ति॑ दाक्षाय॒णꣳ हिर॑ण्य॒ꣳस दे॒वेषु॑ कृणुते दी॒र्घमायुः॒ स म॑नु॒ष्ये᳖षु कृणुते दी॒र्घमायुः॑ ॥५१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। तत्। रक्षा॑सि। न। पि॒शा॒चाः। त॒र॒न्तिः। दे॒वाना॑म्। ओजः॑। प्र॒थ॒म॒जमिति॑ प्रथम॒ऽजम्। हि। ए॒तत् ॥ यः। बि॒भर्त्ति॑। दा॒क्षा॒य॒णम्। हिर॑ण्यम्। सः। दे॒वेषु॑। कृ॒णु॒ते॒। दी॒र्घम्। आयुः॑। सः। म॒नु॒ष्ये᳖षु। कृ॒णु॒ते॒। दी॒र्घम्। आयुः॑ ॥५१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:51


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ब्रह्मचर्य की प्रशंसा का विषय अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (देवानाम्) विद्वानों का (प्रथमजम्) प्रथम अवस्था वा ब्रह्मचर्य्य आश्रम में उत्पन्न हुआ (ओजः) बल पराक्रम है, (तत्) उसको (न, रक्षांसि) न अन्यों को पीड़ा विशेष देकर अपनी ही रक्षा करनेहारे और (न, पिशाचाः) न प्राणियों के रुधिरादि को खानेवाले हिंसक म्लेच्छाचारी दुष्टजन (तरन्ति) उल्लङ्घन करते। (यः) जो मनुष्य (हि, एतत्) इस (दाक्षायणम्) चतुर को प्राप्त होने योग्य (हिरण्यम्) तेजःस्वरूप ब्रह्मचर्य्य को (बिभर्त्ति) धारण वा पोषण करता है, (सः) वह (देवेषु) विद्वानों में (दीर्घम्, आयुः) अधिक अवस्था को (कृणुते) प्राप्त होता और (सः) वह (मनुष्येषु) मननशील जनों में (दीर्घम्, आयुः) बड़ी अवस्था को (कृणुते) प्राप्त करता है ॥५१ ॥
भावार्थभाषाः - जो प्रथम अवस्था में बड़े धर्मयुक्त ब्रह्मचर्य्य से पूर्ण विद्या पढ़ते हैं, उनको न कोई चोर न दायभागी और न उनको भार होता है। जो विद्वान् इस प्रकार धर्मयुक्त कर्म के साथ वर्त्तते हैं, वे विद्वानों और मनुष्यों में बड़ी अवस्था को प्राप्त होके निरन्तर आनन्दित होते और दूसरों को आनन्दित करते हैं ॥५१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ ब्रह्मचर्यप्रशंसाविषयमाह ॥

अन्वय:

(न) (तत्) अध्ययनं विद्याप्रापणम् (रक्षांसि) अन्यान् प्रपीड्य स्वात्मानमेव ये रक्षन्ति ते (न) (पिशाचाः) ये प्राणिनां पेशितं रुधिरादिकमाचामन्ति भक्षयन्ति ते हिंसका म्लेच्छाचारिणो दुष्टाः (तरन्ति) उल्लङ्घन्ते (देवानाम्) विदुषाम् (ओजः) बलपराक्रमः (प्रथमजम्) प्रथमे वयसि ब्रह्मचर्य्याश्रमे वा जातम् (हि) खलु (एतत्) (यः) (बिभर्त्ति) (दाक्षायणम्) दक्षेण चतुरेणाऽयनं प्रापणीयं तदेव स्वार्थेऽण् (हिरण्यम्) ज्योतिर्मयम् (सः) (देवेषु) विद्वत्सु (कृणुते) (दीर्घम्) लम्बमानम् (आयुः) जीवनम् (सः) (मनुष्येषु) मननशीलेषु (कृणुते) करोति (दीर्घम्) (आयुः) ॥५१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यद्देवानां प्रथमजमोजोऽस्ति, न तद्रक्षांसि न पिशाचास्तरन्ति, यो ह्येतद् दाक्षायणं हिरण्यं बिभर्त्ति, स देवेषु दीर्घमायुः कृणुते, स मनुष्येषु दीर्घमायुः कृणुते ॥५१ ॥
भावार्थभाषाः - ये प्रथमे वयसि दीर्घेण धर्म्येण ब्रह्मचर्येण पूर्णां विद्यामधीयते, न तेषां केचिच्चोरा न दायभागिनो न तेषां भारो भवति। य एवं विद्वांसो धर्म्येण वर्त्तन्ते ते विद्वत्सु मनुष्येषु च दीर्घमायुर्लब्ध्वा सततमानन्दन्त्यन्यानानन्दयन्ति च ॥५१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे प्रथमावस्थेत धर्माने वागून ब्रह्मचर्य पालन करून पूर्ण विद्या प्राप्त करतात त्यांची विद्या व बल कुणी चोरून घेऊ शकत नाही. त्यांचा भागीदार बनू शकत नाही किंवा ते भारवहक बनू शकत नाहीत. जे विद्वान अशा प्रकारचे धर्मयुक्त कर्म करतात ते इतरांपेक्षा अधिक वर्षे जगतात. सतत आनंदी राहून इतरांनाही आनंदी करतात.