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स॒हस्तो॑माः स॒हच्छ॑न्दसऽआ॒वृतः॑ स॒हप्र॑मा॒ऽऋष॑यः स॒प्त दैव्याः॑। पूर्वे॑षां॒ पन्था॑मनु॒दृश्य॒ धीरा॑ऽअ॒न्वाले॑भिरे र॒थ्यो̫ न र॒श्मीन् ॥४९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒हस्तो॑मा॒ इति॑ स॒हऽस्तो॑माः। स॒हछ॑न्दस॒ इति॑ स॒हऽछ॑न्दसः। आ॒वृत॒ इत्या॒ऽवृतः॑। स॒हप्र॑मा॒ इति॑ स॒हऽप्र॑माः। ऋष॑यः। स॒प्त। दैव्याः॑। पूर्वे॑षाम्। पन्था॑म्। अ॒नु॒दृश्येत्य॑नु॒ऽदृश्य॑। धीराः॑। अ॒न्वाले॑भिर॒ इत्य॑नु॒ऽआले॑भिरे॒। र॒थ्यः᳕। न। र॒श्मीन् ॥४९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:49


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ऋषि कौन होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (सहस्तोमाः) प्रशंसाओं के साथ वर्त्तमान वा जिनकी शास्त्रस्तुति एक साथ हो (सहछन्दसः) वेदादि का अध्ययन वा स्वतन्त्र सुख भोग जिनका साथ हो (आवृतः) ब्रह्मचर्य्य के साथ समस्त विद्या पढ़ और गुरुकुल से निवृत्त होके घर आये (सहप्रमाः) साथ ही जिनका प्रमाणादि यथार्थ ज्ञान हो (सप्त) पाँच ज्ञानेन्द्रिय, अन्तःकरण और आत्मा ये सात (दैव्याः) उत्तम गुणकर्मस्वभावों में प्रवीण (धीराः) ध्यानवाले योगी (ऋषयः) वेदादि शास्त्रों के ज्ञाता लोग (रथ्यः) सारथि (न) जैसे (रश्मीन्) लगाम की रस्सी को ग्रहण करता, वैसे (पूर्वेषाम्) पूर्वज विद्वानों के (पन्थाम्) मार्ग को (अनुदृश्य) अनुकूलता से देख के (अन्वालेभिरे) पश्चात् प्राप्त होते हैं, वैसे होकर तुम लोग भी आप्तों के मार्ग को प्राप्त होओ ॥४९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो रागद्वेषादि दोषों को दूर से छोड़ आपस में प्रीति रखनेवाले हों, ब्रह्मचर्य्य से धर्म के अनुष्ठानपूर्वक समस्त वेदों को जान के सत्य-असत्य का निश्चय कर सत्य को प्राप्त हो और असत्य को छोड़ के आप्तों के भाव से वर्त्तते हैं, वे सुशिक्षित सारथियों के समान अभीष्ट धर्मयुक्त मार्ग में जाने को समर्थ होते और वे ही ऋषिसज्ञंक होते हैं ॥४९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ के ऋषयो भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

(सहस्तोमाः) स्तोमैः श्लाघाभिस्सह वर्त्तमाना यद्वा सहस्तोमाः शास्त्रस्तुतयो येषान्ते (सहछन्दसः) सह छन्दांसि वेदाऽध्ययनं स्वातन्त्र्यं सुखभोगो वा येषान्ते (आवृतः) ब्रह्मचर्य्येण सकला विद्या अधीत्य गुरुकुलान्निवृत्य गृहमागताः (सहप्रमाः) सहैव प्रमा यथार्थं प्रज्ञानं येषान्ते (ऋषयः) वेदादिशास्त्रार्थविदः (सप्त) पञ्च ज्ञानेन्द्रियाण्यन्तःकरणमात्मा च (दैव्याः) देवेषु गुणकर्मस्वभावेषु कुशलाः (पूर्वेषाम्) अतीतानां विदुषाम् (पन्थाम्) पन्थानं मार्गम् (अनुदृश्य) आनुकूल्येन दृष्ट्वा (धीराः) ध्यानवन्तो योगिनः (अन्वालेभिरे) अनुलभन्ते (रथ्यः) रथे साधू रथ्यः सारथिः (न) इव (रश्मीन्) रज्जून् ॥४९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा सहस्तोमाः सहछन्दस आवृतः सहप्रमाः सप्त दैव्या धीरा ऋषयो रथ्यो रश्मीन्नेव पूर्वेषां पन्थामनुदृश्यान्वालेभिरे, तथा भूत्वा यूयमप्याप्तमार्गमन्वालभध्वम् ॥४९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये रागद्वेषादिदोषान् दूरतस्त्यक्त्वा परस्परस्मिन् प्रीतिमन्तो भूत्वा ब्रह्मचर्येण धर्माऽनुष्ठानपुरःसरमखिलान् वेदान् विज्ञाय सत्याऽसत्ये विविच्य सत्यं लब्ध्वाऽसत्यं विहायाप्तभावेन वर्त्तन्ते, ते सुशिक्षिताः सारथय इवाऽभीष्टं धर्म्यं मार्गं गन्तुमर्हन्ति, त एवर्षिसंज्ञां लभन्ते ॥४९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे लोक राग द्वेष दूर सारून आपापसात प्रेमाने वागतात. ब्रह्मचर्याचे पालन करून, धर्माचे अनुष्ठान करून संपूर्ण वेद जाणतात. सत्य व असत्याचा निश्चय करून सत्याचा स्वीकार व असत्याचा त्याग करतात आणि आप्तभावाने वागतात ते प्रशिक्षित सारथ्याप्रमाणे धर्मयुक्त मार्गाने जाण्यास समर्थ असतात त्यांनाच ऋषी म्हटले जाते.