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घृ॒तव॑ती॒ भुव॑नानामभि॒श्रियो॒र्वी पृ॒थ्वी म॑धु॒दुघे॑ सु॒पेश॑सा। द्यावा॑पृथि॒वी वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा॒ विष्क॑भितेऽअ॒जरे॒ भूरि॑रतेसा ॥४५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घृ॒तवती॒ इति॑ घृ॒तऽव॑ती। भुव॑नानाम्। अ॒भि॒श्रियेत्य॑भि॒ऽश्रिया॑। उ॒र्वीऽइत्यु॒र्वी। पृ॒थ्वीऽइति॑ पृ॒थ्वी। म॒धु॒दुघे॒ इति॑ मधु॒ऽदुघे॑। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा ॥ द्यावा॑पृथिवीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। वरु॑णस्य। धर्म॑णा। विस्क॑भिते॒ इति॒ विऽस्क॑भिते। अ॒जरे॒ऽइत्य॒जरे॑। भूरि॑रेत॒सेति॒ भूरि॑ऽरेतसा ॥४५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:45


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस (वरुणस्य) सबसे श्रेष्ठ जगदीश्वर के (धर्मणा) धारण करने रूप सामर्थ्य से (मधुदुघे) जल की पूर्ण करनेवाली (सुपेशसा) सुन्दर रूपयुक्त (पृथ्वी) विस्तारयुक्त (उर्वी) बहुत पदार्थोंवाली (घृतवती) बहुत जल के परिवर्त्तन से युक्त (अजरे) अपने स्वरूप से नाशरहित (भूरिरेतसा) बहुत जलों से युक्त वा अनेक वीर्य वा पराक्रमों की हेतु (भुवनानाम्) लोक-लोकान्तरों की (अभिश्रिया) सब ओर से शोभा करनेवाली (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि (विष्कभिते) विशेष कर धारण वा दृढ़ किये हैं, उसी को उपासना के योग्य तुम लोग जानो ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जिस परमेश्वर ने प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप दो प्रकार के जगत् को बना और धारण करके पालित किया है, वही सर्वदा उपासना के योग्य है ॥४५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(घृतवती) घृतमुदकं बहु विद्यते ययोस्ते (भुवनानाम्) लोकलोकान्तराणाम् (अभिश्रिया) अभितः सर्वतः श्रीः शोभा लक्ष्मीर्याभ्यान्ते (उर्वी) बहुपदार्थयुक्ते (पृथ्वी) विस्तीर्णे (मधुदुघे) ये मधूदकं प्रपूरयतस्ते (सुपेशसा) शोभनं पेशो रूपं ययोस्ते (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (वरुणस्य) सर्वेभ्यो वरस्य श्रेष्ठस्य जगदीश्वरस्य (धर्मणा) धारणसामर्थ्येन (विष्कभिते) विशेषेण धृते दृढीकृते (अजरे) स्वस्वरूपेण जरानाशरहिते (भूरिरेतसा) भूरि बहु रेत उदकं ययोर्वा भूरीणि बहूनि रेतांसि वीर्याणि याभ्यान्ते ॥४५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यस्य वरुणस्य परमेश्वरस्य धर्मणा मधुदुघे सुपेशसा पृथ्वी उर्वी घृतवती अजरे भूरिरेतसा भुवनानामभिश्रिया द्यावापृथिवी विष्कभिते, तमेवोपास्यं यूयं विजानीत ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्येन परमेश्वरेण प्रकाशाऽप्रकाशात्मकं द्विविधं जगन्निर्माय धृत्वा पाल्यते, स एव सर्वदोपासनीयोऽस्ति ॥४५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या परमेश्वराने प्रकाशरूपी व अप्रकाशरूपी असे दोन प्रकारचे जग बनवून व धारण करून त्याचे तो पालन करत आहे. नेहमी माणसांनी त्याचीच उपासना करावी.