वांछित मन्त्र चुनें

हिर॑ण्यपाणिः सवि॒ता विच॑र्षणिरु॒भे द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॒न्तरी॑यते। अपामी॑वां॒ बाध॑ते॒ वेति॒ सूर्य्य॑म॒भि कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ द्यामृ॑णोति ॥२५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हिर॑ण्यपाणि॒रिति॒ हिर॑ण्यऽपाणिः। स॒वि॒ता। विच॑र्षणि॒रिति॒ विऽच॑र्षणिः। उ॒भेऽइ॒त्यु॒भे। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒न्तः। ई॒य॒ते॒ ॥ अप॑। अमी॑वाम्। बाध॑ते। वेति। सूर्य्य॑म्। अ॒भि। कृ॒ष्णेन॑। रज॑सा। द्याम्। ऋ॒णो॒ति॒ ॥२५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:25


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (हिरण्यपाणिः) हाथों के तुल्य जलादि के ग्राहक प्रकाशरूप किरणों से युक्त (विचर्षणिः) विशेष कर सबको दिखानेवाली (सविता) सब पदार्थों की उत्पत्ति का हेतु (सूर्य्यम्) सूर्य्यलोक जब (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी) आकाश भूमि के (अन्तः) बीच (ईयते) उदय होकर घूमता है, तब (अमीवाम्) व्याधिरूप अन्धकार को (अप, बाधते) दूर करता और जब (वेति) अस्त समय को प्राप्त होता तब (कृष्णेन) (रजसा) काले अन्धकाररूप से (द्याम्) आकाश को (अभि, ऋणोति) सब ओर से व्याप्त होता है, उस सूर्य्य को तुम लोग जानो ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य अपने समीपवर्त्ती लोकों का आकर्षण कर धारण करता है, वैसे ही अनेक लोकों से शोभायमान सूर्यादि सब जगत् को सब ओर से व्याप्त हो और आकर्षण करके ईश्वर धारण करता है, ऐसा जानो। क्योंकि ईश्वर के बिना सबका स्रष्टा तथा धर्त्ता अन्य कोई भी नहीं हो सकता ॥२५ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(हिरण्यपाणिः) हिरण्यं ज्योतिः पाणिरिव यस्य सः (सविता) ऐश्वर्यप्रदः (विचर्षणिः) विशेषेण दर्शकः (उभे) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (अन्तः) मध्ये (ईयते) प्राप्य गच्छति (अप) दूरीकरणे (अमीवाम्) व्याधिरूपमन्धकारम् (बाधते) दूरीकरोति (वेति) अस्तमेति (सूर्य्यम्) सवितृलोकः। अत्र विभक्तिव्यत्ययः। (अभि) सर्वतः (कृष्णेन) कृष्णवर्णेन (रजसा) अन्धकारलक्षणेन (द्याम्) (ऋणोति) गच्छति प्राप्नोति। ऋणोतीति गतिकर्मा ॥ (निघं०२.१४) ॥२५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यो हिरण्यपाणिर्विचर्षणिः सविता सूर्य्यं यदोभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते, तदाऽमीवामपबाधते, यदा च वेति तदा कृष्णेन रजसा द्यामभि ऋणोति तं यूयं विजानीत ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा सूर्य्यः सन्निहिताँल्लोकानाकृष्य धरति, तथैवाऽनेकलोकाऽलंकृतं सूर्य्यादिकं सर्वं जगदभिव्याप्याऽऽकृष्येश्वरो दधातीति यूयं विजानीत। नहीश्वरमन्तरेण सर्वस्य विधाता धर्ता अन्यः कश्चित् सम्भवितुमर्हति ॥२५ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जसा सूर्य सर्व गोलांचे आकर्षण करून त्यांना धारण करतो, तसेच सूर्य वगैरेना ईश्वर आपल्या आकर्षणाने धारण करतो हे जाणा. कारण ईश्वराशिवाय सर्वांचा स्रष्टा व धर्ता दुसरा कोणी असू शकत नाही.