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आ नो॑ य॒ज्ञं दि॑वि॒स्पृशं॒ वायो॑ या॒हि सु॒मन्म॑भिः। अ॒न्तः प॒वित्र॑ऽउ॒परि॑ श्रीणा॒नो᳕ऽयꣳ शु॒क्रोऽअ॑यामि ते ॥८५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। नः॒। य॒ज्ञम्। दि॒वि॒स्पृश॒मिति॑ दिवि॒ऽस्पृश॑म्। वायो॒ऽइति॒ वायो॑। या॒हि। सु॒मन्म॑भि॒रिति॑ सु॒मन्म॑ऽभिः ॥ अ॒न्तरित्य॒न्तः। प॒वित्रे॑। उ॒परि॑। श्री॒णा॒नः। अ॒यम्। शु॒क्रः। अ॒या॒मि॒। ते॒ ॥८५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:85


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वायो) वायु के तुल्य वर्त्तमान राजन् ! जैसे मैं (अन्तः) अन्तःकरण में (पवित्रः) शुद्धात्मा (उपरि) उन्नति में (श्रीणानः) आश्रय करता हुआ (अयम्) यह (शुक्रः) शीघ्रकारी पराक्रमी हुआ (सुमन्मभिः) सुन्दर विज्ञानों से (ते) आपके (दिविस्पृशम्) विद्याप्रकाशयुक्त (यज्ञम्) संगत व्यवहार को (अयामि) प्राप्त होता हूँ, वैसे आप (नः) हमारे विद्याप्रकाशयुक्त उत्तम व्यवहार को (आ, याहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये ॥८५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वर्त्तमान वर्त्ताव से राजा प्रजाओं में चेष्टा करता है, वैसे ही भाव से प्रजा राजा के विषय में वर्त्ते। ऐसे दोनों मिल के सब न्याय के व्यवहार को पूर्ण करें ॥८५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) सङ्गतं व्यवहारम् (दिविस्पृशम्) विद्याप्रकाशयुक्तम् (वायो) वायुवद्वर्त्तमान (याहि) प्राप्नुहि (सुमन्मभिः) शोभनैर्विज्ञानैः (अन्तः) आभ्यन्तरे (पवित्रः) शुद्धात्मा (उपरि) उत्कर्षे (श्रीणानः) आश्रयं कुर्वाणः (अयम्) (शुक्रः) आशुकर्त्ता वीर्य्यवान् (अयामि) प्राप्नोमि (ते) तव ॥८५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वायो राजन् ! यथाऽहमन्तः पवित्र उपरि श्रीणानोऽयं शुक्रः सन् सुमन्मभिस्ते दिविस्पृश यज्ञमयामि तथा त्वं नो दिविस्पृशं यज्ञमायाहि ॥८५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यादृशेन वर्त्तमानेन वृत्तेन राजा प्रजासु चेष्टेत तादृशेनैव भावेन प्रजा राजनि वर्त्तेत। एवमुभौ मिलित्वा सर्वं न्यायव्यवहारमलं कुर्याताम् ॥८५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजा जसा प्रजेशी वागतो तसे प्रजेनेही राजाशी वागावे. अशा प्रकारे दोघंनी मिळून न्यायी बनावे.