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आ रोद॑सीऽअपृण॒दा स्व॑र्म॒हज्जा॒तं यदे॑नम॒पसो॒ऽअधा॑रयन्। सोऽअ॑ध्व॒राय॒ परि॑ णीयते क॒विरत्यो॒ न वाज॑सातये॒ चनो॑हितः ॥७५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। रोद॑सी॒ऽइति॒ रोद॑सी। अ॒पृ॒ण॒त्। आ। स्वः॑। म॒हत्। जा॒तम्। यत्। ए॒न॒म्। अ॒पसः॑। अधा॑रयन् ॥ सः। अ॒ध्व॒राय॑। परि॑। नी॒य॒ते॒। क॒विः। अत्यः॑। न। वाज॑सातये॒ऽइति॒ वाज॑ऽसातये। चनो॑हित॒ऽइति॒ चनः॑ऽहितः ॥७५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:75


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो विद्युत् रूप अग्नि (रोदसी) सूर्य-पृथिवी और (महत्) महान् (जातम्) प्रसिद्ध (स्वः) अन्तरिक्ष को (आ, अपृणत्) अच्छे प्रकार व्याप्त होता (एनम्) इस अग्नि को (अपसः) कर्म (आ, अधारयन्) अच्छे प्रकार धारण करते तथा जो (कविः) शब्द होने का हेतु अग्नि (अध्वराय) अहिंसा नामक शिल्पविद्या रूप यज्ञ के तथा (वाजसातये) वेग के सम्यक् सेवन के लिये (अत्यः) मार्ग को व्याप्त होनेवाले घोड़े के (नः) समान विद्वानों ने (परि, नीयते) प्राप्त किया है, (सः) वह (चनोहितः) पृथिवी आदि अन्न के लिये हितकारी है, ऐसा तुम लोग जानो ॥७५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि अनेक प्रकार के विज्ञान और कर्मों से बिजुली रूप अग्नि की विद्या को प्राप्त हो, भूमि आदि में व्याप्त विभागकर्ता साधन किया हुआ यान आदि को शीघ्र पहुँचानेवाले अग्नि को कार्यों में उपयुक्त करें ॥७५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अपृणत्) पृणाति व्याप्नोति (आ) (स्वः) अन्तरिक्षम् (महत्) (जातम्) (यत्) (एनम्) (अपसः) कर्माणि (अधारयन्) धारयन्ति (सः) (अध्वराय) अहिंसाख्याय शिल्पमयाय यज्ञाय (परि) सर्वतः (नीयते) प्राप्यते (कविः) शब्दहेतुः (अत्यः) योऽतति व्याप्नोत्यध्वानं सोऽश्वः (न) इव (वाजसातये) वाजस्य वेगस्य संभजनाय (चनोहितः) चनसे पृथिव्याद्यन्नाय हितकारी। चन इत्यन्ननाम। (निरु०६.१६) ॥७५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यद्यो विद्युद्रूपोऽग्नी रोदसी महज्जातं स्वश्चाऽऽपृणदेनमपस आधारयन् यश्च कविरध्वराय वाजसातये चात्यो न विद्वद्भिः परिणीयते स चनोहितोऽस्तीति यूयं विजानीत ॥७५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरनेकविधैर्विज्ञानकर्मभिर्विद्युद्विद्यां लब्ध्वा भूम्यादिषु व्याप्तो विभाजकश्च साधितः सन् यानादीनां सद्यो गमयिताऽग्निः कार्येषूपयोक्तव्यः ॥७५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी अनेक प्रकारचे ज्ञान व कर्म करून विद्युतरूपी अग्निविद्या प्राप्त करावी व भूमीत व्याप्त असलेला, विलग करणारा, यानाना वेगाने पोहोचविणारा अशा अग्नीचा उपयोग करून घ्यावा.