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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (नासत्या) असत्य आचरण से पृथक् (रुद्रवर्त्तनी) दुष्टरोदक न्यायाधीश के तुल्य आचरणवाले (दस्रा) दुष्टों के निवारक विद्वानो ! जो (वृक्तबर्हिषः) यज्ञ से पृथक् अर्थात् भोजनार्थ (युवाकवः) तुमको चाहनेवाले (सुताः) सिद्ध किये पदार्थ हैं, उनको तुम लोग (आ, यातम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को योग्य है कि जो विद्याओं की कामना करते हैं, उनको विद्या देवें ॥५८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(दस्रा) दुष्टानां निवारकौ (युवाकवः) ये युवां कामयन्ते ते (सुताः) निष्पन्नाः (नासत्या) अविद्यमानासत्याचरणौ (वृक्तबर्हिषः) वृक्तं वर्जितं बर्हिर्यैस्ते (आ) (यातम्) समन्तात् प्राप्नुतम् (रुद्रवर्त्तनी) रुद्रस्य वर्त्तनिरिव वर्त्तनिर्ययोस्तौ ॥५८ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे नासत्या ! रुद्रवर्त्तनी दस्रा ये वृक्तबर्हिषो युवाकवः सुताः सन्ति तान् युवामायातम् ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - विदुषां योग्यतास्ति ये विद्याः कामयन्ते तेभ्यो विद्या दद्युः ॥५८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्येची कामना करतात त्यांना विद्वानांनी विद्या द्यावी.