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आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च। हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न् ॥४३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। कृ॒ष्णेन॑। रज॑सा। वर्त्त॑मानः। नि॒वे॒शय॒न्निति॑ निऽवे॒शय॑न्। अ॒मृत॑म्। मर्त्य॑म्। च॒ ॥ हि॒र॒ण्यये॑न। स॒वि॒ता। रथे॑न। आ। दे॒वः। या॒ति॒। भुव॑नानि। पश्य॑न् ॥४३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:43


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्य्य मण्डल कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (हिरण्ययेन रथेन) ज्योतिःस्वरूप रमणीय स्वरूप से (कृष्णेन) आकर्षण से परस्पर सम्बद्ध (रजसा) लोकमात्र के साथ (आ, वर्त्तमानः) अपने भ्रमण की आवृत्ति करता हुआ (भुवनानि) सब लोकों को (पश्यन्) दिखाता हुआ (देवः) प्रकाशमान (सविता) सूर्य्यदेव (अमृतम्) जल वा अविनाशी आकाशादि (च) और (मर्त्यम्) मरणधर्मा प्राणिमात्र को (निवेशयन्) अपने-अपने प्रदेश में स्थापित करता हुआ (आ, याति) उदयास्त समय में आता-जाता है, सो ईश्वर का बनाया सूर्य्यलोक है ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे इन भूगोलादि लोकों के साथ सूर्य्य का आकर्षण है, जो वृष्टिद्वारा अमृतरूप जल को बरसाता और जो मूर्त्त द्रव्यों को दिखानेवाला है, वैसे ही सूर्य्य आदि लोक भी ईश्वर के आकर्षण से धारण किये हुए हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥४३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्य्यमण्डलं कीदृशमित्याह ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (कृष्णेन) कर्षणेन (रजसा) लोकसमूहेन सह (वर्त्तमानः) (निवेशयन्) स्वस्वप्रदेशेषु स्थापयन् (अमृतम्) उदकममरणधर्मकमाकाशादिकं वा। अमृतमित्युदकनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१२) (मर्त्यम्) मनुष्यादिप्राणिजातम् (च) (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेन (सविता) सूर्य्यः (रथेन) रमणीयेन स्वरूपेण (आ) (देवः) प्रकाशमानः (याति) गच्छति (भुवनानि) (पश्यन्) दर्शयन्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः ॥४३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यो हिरण्यमयेन रथेन कृष्णेन रजसा सहाऽऽवर्त्तमानो भुवनानि पश्यन् देवः सविताऽमृतं मर्त्यं च निवेशयन्नायाति स ईश्वरनिर्मितः सूर्य्यो लोकोऽस्ति ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा एतद्भूगोलाद्यैर्लोकैः सह तस्य सूर्य्यस्याकर्षणं यो वृष्टिद्वारा अमृतात्मकमुदकं वर्षयति यश्च सर्वेषां मूर्तद्रव्याणां दर्शयितास्ति तथा सूर्य्यादयोऽपीश्वराकर्षणेन ध्रियन्त इति वेद्यम् ॥४३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जसे भूगोल वगैरे गोलांना सूर्य आकर्षित करतो व वृष्टीद्वारे अमृतरूपी जलवर्षाव करतो आणि प्रत्यक्ष मूर्त पदार्थांचे दर्शन घडवितो त्या सूर्याला ईश्वराच्या आकर्षणाने धारण केलेले आहे हे जाणा.