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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर राजधर्मविषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (पावक) पवित्रकर्त्ता (वरुण) श्रेष्ठ विद्वन् वा राजन् ! (त्वम्) आप (येन) जिस (चक्षसा) प्रकट दृष्टि वा उपदेश से (भुरण्यन्तम्) रक्षा करते हुए (अनु, पश्यसि) अनुकूल देखते हो, उससे (जनान्) हम आदि मनुष्यों को देखिये और आपके अनुकूल हम वर्त्तें ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा और राजपुरुष जिस प्रकार के व्यवहार से प्रजाओं में वर्त्तें, वैसे ही भाव से इनमें प्रजा लोग भी वर्त्तें ॥३२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुना राजधर्मविषयमाह ॥
अन्वय:
(येन) अत्र संहितायाम् [अ०६.३.११४] इति दीर्घः। (पावक) पवित्रकारक ! (चक्षसा) व्यक्तेन दर्शनेनोपदेशेन वा (भुरण्यन्तम्) पालयन्तम् (जनान्) अस्मदादिमनुष्यान् (अनु) (त्वम्) (वरुण) राजन् ! (पश्यसि) ॥३२ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे पावक वरुण ! विद्वंस्त्वं येन चक्षसा भुरण्यन्तमनुपश्यसि, तेन जनान् पश्य, तवानुकूलाश्च वयं वर्तेमहि ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा राजराजपुरुषा यादृशेन व्यवहारेण प्रजासु वर्त्तेरन्, तथैव भावेनैतेषु प्रजा अपि वर्त्तेरन् ॥३२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजा व राजपुरुष प्रजेबरोबर ज्याप्रमाणे वागतात त्याप्रमाणेच प्रजेनेही त्यांच्याबरोबर वागावे.