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इ॒मां ते॒ धियं॒ प्र भ॑रे म॒हो म॒हीम॒स्य स्तो॒त्रे धि॒षणा॒ यत्त॑ऽआन॒जे। तमु॑त्स॒वे च॑ प्रस॒वे च॑ सास॒हिमिन्द्रं॑ दे॒वासः॒ शव॑सामद॒न्ननु॑ ॥२९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒माम्। ते॒। धिय॑म्। प्र। भ॒रे॒। म॒हः। म॒हीम्। अ॒स्य। स्तो॒त्रे। धि॒षणा॑। यत्। ते॒। आ॒न॒जे ॥ तम्। उ॒त्स॒व इत्यु॑त्ऽस॒वे। च॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। च॒। सा॒स॒हिम्। स॒स॒हिमिति॑ सस॒हिम्। इन्द्र॑म्। दे॒वासः॑। शव॑सा। अ॒म॒द॒न्। अनु॑ ॥२९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! मैं (महीम्) सुन्दर पूज्य (इमाम्) इस (ते) आपकी (धियम्) बुद्धि वा कर्म को (प्र, भरे) धारण करता हूँ (स्तोत्रे) स्तुति होने में (अस्य) इस मेरी (धिषणा) बुद्धि (यत्) जिस (ते) आपको (आनजे) प्रकट करती है (तम्) उस (शवसा) बल के साथ (सासहिम्) शीघ्र सहनेवाले (इन्द्रम्) उत्तम बल के योग से शत्रुओं को विदीर्ण करनेहारे सभापति को (महः) महान् कार्य के (उत्सवे) करने योग्य आनन्द समय (च) और (प्रसवे) उत्पत्ति में (च) भी (देवासः) विद्वान् लोग (अनु, अमदन्) अनुकूलता से आनन्दित करें ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - जो राजादि मनुष्य विद्वानों से उत्तम बुद्धि वा वाणी को ग्रहण करते हैं, वे सत्य के अनुकूल हुए आप आनन्दित होके औरों को प्रसन्न करते हैं ॥२९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इमाम्) (ते) तव (धियम्) प्रज्ञां कर्म वा (प्र) (भरे) धरे (महः) महतः (महीम्) सुपूज्याम्। महीति वाङ्नामसु पठितम् ॥ (निघं०१.११) (अस्य) मम (स्तोत्रे) स्तवने (धिषणा) प्रज्ञा (यत्) यम् (ते) तान्। अत्र कर्मणि षष्ठी। (आनजे) व्यनक्ति (तम्) (उत्सवे) कर्त्तव्यानन्दसमये (च) (प्रसवे) उत्पत्तौ (च) (सासहिम्) भृशं सोढारम् (इन्द्रम्) परमबलयोगेन शत्रूणां विदारकम् (देवासः) विद्वांसः (शवसा) बलेन (अमदन्) आनन्देयुः (अनु) आनुकूल्येन ॥२९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्राहं महीमिमान्ते धियं प्रभरे स्तोत्रेऽस्य धिषणा यत्त आनजे तं शवसा सासहिमिन्द्रं मह उत्सवे च प्रसवे च देवासोऽन्वमदन् ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - ये राजादयो मनुष्या विद्वद्भ्य उत्तमां प्रज्ञां वाचं गृह्णन्ति ते सत्यानुकूलाः सन्तः स्वयमानन्दिता भूत्वाऽन्यानानन्दयन्ति ॥२९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे राजे विद्वानांकडून उत्तम बुद्धी व वाणीचा स्वीकार करतात ते सत्यवादी बनतात व स्वतः आनंदित होऊन इतरांनाही प्रसन्न करतात.