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आप॑श्चित्पिप्यु स्त॒र्यो̫ न गावो॒ नक्ष॑न्नृ॒तं ज॑रि॒तार॑स्तऽइन्द्र। या॒हि वा॒युर्न नि॒युतो॑ नो॒ऽअच्छा॒ त्वꣳहि धी॒भिर्दय॑से॒ वि वाजा॑न् ॥१८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आपः॑। चि॒त्। पि॒य्युः॒। स्त॒र्य्य᳕। न। गावः॑। नक्ष॑न्। ऋ॒तम्। ज॒रि॒तारः॑। ते॒। इ॒न्द्र॒ ॥ या॒हि। वा॒युः। न। नि॒युत॒ इति॑ नि॒ऽयुतः॑। नः॒। अच्छ॑। त्वम्। हि। धी॒भिः। दय॑से। वि। वाजा॑न् ॥१८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:18


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अध्यापक और उपदेशक क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त विद्वन् ! (ते) आपके (जरितारः) स्तुति करनेहारे (आपः) जलों के तुल्य (पिप्युः) बढ़ते हैं और (स्तर्यः) विस्तार के हेतु (गावः) किरणें (न) जैसे (ऋतम्) सत्य को (नक्षन्) व्याप्त होते हैं, वैसे (वायुः) पवन के (न) तुल्य (वाजान्) विज्ञानवाले (नः) हम लोगों को और (नियुतः) वायु के वेग आदि गुणों को (त्वम्) आप (अच्छ) अच्छे प्रकार (याहि) प्राप्त हूजिये (हि) जिस कारण (धीभिः) बुद्धि वा कर्मों से (वि, दयसे) विशेष कर कृपा करते हो, इससे (चित्) भी सत्कार के योग्य हो ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभावों की स्तुति करनेवाले उपदेशक और अध्यापक हों तो सब मनुष्य विद्या में व्याप्त हुए दयावाले हों ॥१८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अध्यापकोपदेशकौ किं कुर्यातामित्याह ॥

अन्वय:

(आपः) जलानि (चित्) अपि (पिप्युः) वर्द्धन्ते (स्तर्यः) स्तृणन्ति याभिस्ताः (न) इव (गावः) किरणाः (नक्षन्) व्याप्नुवन्ति (ऋतम्) सत्यम् (जरितारः) स्तावकाः (ते) (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त विद्वन् ! (याहि) (वायुः) पवनः (न) इव (नियुतः) वायोर्वेगादयो गुणाः (नः) अस्मान् (अच्छ) अत्र निपातस्य च [अ०६.३.१३६] इति दीर्घः। (त्वम्) (हि) (धीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (दयसे) कृपां करोषि (वि) (वाजान्) विज्ञानवतः ॥१८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! ते तव जरितार आप इव पिप्यु स्तर्य्यो गावो न ऋतं नक्षन् तथा वाजान्नो नियुतश्च वायुर्न त्वमच्छ याहि हि यतो धीभिर्विदयसे तस्माच्चिदपि सत्कर्त्तव्योऽसि ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यदि पदार्थानां गुणकर्मस्वभावस्तावका उपदेशकाऽध्यापकाः स्युस्तर्हि सर्वे मनुष्या विद्याव्यापिनः सन्तो दयावन्तो भवेयुः ॥१८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणणारे अध्यापक व उपदेशक असतील तर सर्व माणसे विद्यावान व दयाळू बनतील.