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त्वा हि म॒न्द्रत॑ममर्कशो॒कैर्व॑वृ॒महे॒ महि॑ नः॒ श्रोष्य॑ग्ने। इन्द्रं॒ न त्वा॒ शव॑सा दे॒वता॑ वा॒युं पृ॑णन्ति॒ राध॑सा॒ नृत॑माः ॥१३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम्। हि। म॒न्द्रत॑म॒मिति॑ म॒न्द्रऽत॑मम्। अ॒र्क॒शो॒कैरित्य॑र्कऽशो॒कैः। व॒वृ॒महे॑। महि॑। नः॒। श्रोषि॑। अ॒ग्ने॒ ॥ इन्द्र॑म्। न। त्वा॒। शव॑सा। दे॒वता॑। वा॒युम्। पृ॒ण॒न्ति॒। राध॑सा। नृत॑मा॒ इति॒ नृऽत॑माः ॥१३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:13


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान राजन् ! वा विद्वज्जन ! (हि) जिससे आप (नः) हम ब्रह्मचर्यादि सत्कर्मों में प्रवृत्त जनों के (महि) महत् गम्भीर वचन को (श्रोषि) सुनते हो, इससे (मन्द्रतमम्) अतिशय कर प्रशंसादि से सत्कार को प्राप्त (त्वाम्) आपको (अर्कशौकैः) सूर्य के समान प्रकाश से युक्त जनों के साथ हम लोग (ववृमहे) स्वीकार करते हैं और (नृतमाः) अतिशय कर नायक श्रेष्ठजन (शवसा) बल से युक्त (इन्द्रम्) सूर्य के (न) समान तेजस्वी और (वायुम्) वायु के तुल्य वर्त्तमान बलवान् (देवता) दिव्यगुणयुक्त (त्वा) आपको (राधसा) धन से (पृणन्ति) पालन वा पूर्ण करते हैं ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो दुःखों को सहन कर सूर्य के समान तेजस्वी और वायु के तुल्य बलवान् विद्वान् मनुष्य विद्या सुशिक्षा का ग्रहण करते हैं, वे मेघ सूर्य जैसे वैसे सबको आनन्द देनेवाले उत्तम पुरुष होते हैं ॥१३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(त्वाम्) (हि) यतः (मन्द्रतमम्) अतिशयेन प्रशंसादिसत्कृतम् (अर्कशोकैः) अर्कः सूर्य्य इव शोकाः प्रकाशा येषान्तैः (ववृमहे) स्वीकुर्महे (महि) महद्वचः (नः) अस्माकं ब्रह्मचर्य्यादिसत्कर्मसु प्रवृत्तानाम् (श्रोषि) शृणोषि। अत्र विकरणस्य लुक्। (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान विद्वन् ! (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (न) इव (त्वा) त्वाम् (शवसा) बलेन (देवता) दिव्यगुणयुक्तम्। अत्र सुपो लुक्। (वायुम्) वातमिव (पृणन्ति) पिपुरति (राधसा) धनेन (नृतमाः) येऽतिशयेन नेतारः श्रेष्ठा जनाः ॥१३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! हि यतो नो महि श्रोषि तस्मान्मन्द्रतमं त्वामर्कशोकैर्वयं ववृमहे, नृतमाः शवसा इन्द्रं न वायुमिव च देवता त्वा राधसा पृणन्ति ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये दुःखानि सोढ्वा सूर्यवत्तेजस्विनो वायुवद् बलिष्ठा विद्यासुशिक्षे गृह्णन्ति, ते मेघेन सूर्य इव सर्वेषामानन्दकराः पुरुषोत्तमा जायन्ते ॥१३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे विद्वान लोक दुःख सहन करतात व सूर्याप्रमाणे तेजस्वी आणि वायूप्रमाणे बलवान बनतात व चांगले शिक्षण घेतात ते सूर्य जसा मेघरूपाने सुख देतो तसे सर्वांना आनंद देतात.