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श्रीश्च॑ ते ल॒क्ष्मीश्च॒ पत्न्या॑वहोरा॒त्रे पा॒र्श्वे नक्ष॑त्राणि रू॒पम॒श्विनौ॒ व्यात्त॑म्। इ॒ष्णन्नि॑षाणा॒मुं म॑ऽइषाण सर्वलो॒कं म॑ऽइषाण ॥२२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श्रीः। च॒। ते॒। ल॒क्ष्मीः। च॒। पत्न्यौ॑। अ॒हो॒रा॒त्रेऽइत्य॑होरात्रे। पार्श्वेऽइति॑ पा॒र्श्वे। नक्ष॑त्राणि। रू॒पम्। अ॒श्विनौ॑। व्यात्त॒मिति॑ वि॒ऽआत्त॑म्। इष्णन् ॥ इषा॒ण॒। अ॒मुम्। मे॒। इ॒षा॒ण॒। स॒र्वलो॒कमिति॑ सर्वऽलो॒कम्। मे॒। इ॒षा॒ण॒ ॥२२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:31» मन्त्र:22


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जिस (ते) आपकी (श्रीः) समग्र शोभा (च) और (लक्ष्मीः) सब ऐश्वर्य (च) भी (पत्न्यौ) दो स्त्रियों के तुल्य वर्त्तमान (अहोरात्रे) दिन-रात (पार्श्वे) आगे-पीछे जिस आपकी सृष्टि में (अश्विनौ) सूर्य-चन्द्रमा (व्यात्तम्) फैले मुख के समान (नक्षत्राणि) नक्षत्र (रूपम्) रूपवाले हैं, सो आप (मे) मेरे (अमुम्) परोक्ष सुख को (इष्णन्) चाहते हुए (इषाण) चाहना कीजिये (मे) मेरे लिये (सर्वलोकम्) सबके दर्शन को (इषाण) प्राप्त कीजिये, मेरे लिये सब सुखों को (इषाण) पहुँचाइये ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - हे राजा आदि मनुष्यो ! जैसे ईश्वर के न्याय आदि गुण, व्याप्ति, कृपा, पुरुषार्थ, सत्य रचना और सत्य नियम हैं, वैसे ही तुम लोगों के भी हों, जिससे तुम्हारा उत्तरोत्तर सुख बढ़े ॥२२ ॥ इस अध्याय में ईश्वर, सृष्टि और राजा के गुणों का वर्णन होने से इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्वाध्याय में कहे अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतपरमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥३१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरः कीदृश इत्याह ॥

अन्वय:

(श्रीः) सकला शोभा (च) (ते) तव (लक्ष्मीः) सर्वमैश्वर्य्यम् (च) (पत्न्यौ) स्त्रीवद्वर्त्तमाने (अहोरात्रे) (पार्श्वे) (नक्षत्राणि) (रूपम्) (अश्विनौ) सूर्याचन्द्रमसौ (व्यात्तम्) विकसितं मुखमिव। अत्र वि, आङ् पूर्वाड् डुदाञ् धातोः क्तः। (इष्णन्) इच्छन् (इषाण) कामय (अमुम्) इतः परं परोक्षं सुखम् (मे) मह्यम् (इषाण) प्रापय (सर्वलोकम्) सर्वेषां दर्शनम् (मे) मह्यम् (इषाण) ॥२२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! यस्य ते श्रीश्च लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे यस्य ते सृष्टावश्विनौ व्यात्तं नक्षत्राणि रूपं स त्वं मेऽमुमिष्णन्निषाण मे सर्वलोकमिषाण मे सर्वाणि सुखानीषाण ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - हे राजादयो मनुष्याः ! यथेश्वरस्य न्यायादयो गुणा व्याप्तिः कृपा पुरुषार्थः सत्यं रचनं सत्या नियमाश्च सन्ति तथैव युष्माकमपि सन्तु यतो युष्माकमुत्तरोत्तरं सुखं वर्द्धेतेति ॥२२ ॥ अत्रेश्वरसृष्टिराजगुणवर्णनादेतदध्यायोक्तार्थस्य पूर्वाऽध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा व सर्व माणसांनो ! ईश्वराची सर्वव्यापकता, न्याय, कृपा, पुरुषार्थ, सत्यरचना व सत्यनियम आहेत, तसेच तुमचे नियमही असावेत म्हणजे तुमचे सुख उत्तरोत्तर वाढेल.