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तप॑से कौला॒लं मा॒यायै॑ क॒र्मार॑ꣳ रू॒पाय॑ मणिका॒रꣳ शु॒भे वप॒ꣳ श॑र॒व्या᳖याऽइषुका॒रꣳ हे॒त्यै ध॑नुष्का॒रं कर्म॑णे ज्याका॒रं दि॒ष्टाय॑ रज्जुस॒र्जं मृ॒त्यवे॑ मृग॒युमन्त॑काय श्व॒निन॑म् ॥७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तप॑से। कौ॒ला॒लम्। मा॒यायै॑। क॒र्मार॑म्। रू॒पा॑य। म॒णि॒का॒रमिति॑ मणिऽका॒रम्। शु॒भे। व॒पम्। श॒र॒व्या᳖यै। इ॒षु॒का॒रमिती॑षुऽका॒रम्। हे॒त्यै। ध॒नु॒ष्का॒रम्। ध॒नुः॒का॒रमिति॑ धनुःऽका॒रम्। कर्म॑णे। ज्या॒का॒रमिति॑ ज्याऽका॒रम्। दि॒ष्टाय॑। र॒ज्जु॒स॒र्जमिति॑ रज्जुऽस॒र्जम्। मृ॒त्यवे॑। मृ॒ग॒युमिति॑ मृग॒ऽयुम्। अन्त॑काय। श्व॒निन॒मिति॑ श्व॒ऽनिन॑म् ॥७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:30» मन्त्र:7


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर वा राजन् ! आप (तपसे) वर्त्तन पकाने के ताप को झेलने के अर्थ (कौलालम्) कुम्हार के पुत्र को (मायायै) बुद्धि बढ़ाने के लिए (कर्मारम्) उत्तम शोभित काम करनेहारे को (रूपाय) सुन्दर स्वरूप बनाने के लिए (मणिकारम्) मणि बनानेवाले को (शुभे) शुभ आचरण के अर्थ (वपम्) जैसे किसान खेत को वैसे विद्यादि शुभ गुणों के बोनेवाले को (शरव्यायै) बाणों के बनाने के लिए (इषुकारम्) बाणकर्त्ता को (हेत्यै) वज्र आदि हथियार बनाने के अर्थ (धनुष्कारम्) धनुष् आदि के कर्त्ता को (कर्मणे) क्रियासिद्धि के लिए (ज्याकारम्) प्रत्यञ्चा के कर्त्ता को (दिष्टाय) और जिस से अतिरचना हो उस के लिए (रज्जुसर्जम्) रज्जु बनानेवाले को उत्पन्न कीजिए और (मृत्यवे) मृत्यु करने को प्रवृत्त हुए (मृगयुम्) व्याध को तथा (अन्तकाय) अन्त करनेवाले के हितकारी (श्वनिनम्) बहुत कुत्ते पालनेवाले को अलग बसाइये ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुषों को चाहिए कि जैसे परमेश्वर ने सृष्टि में रचनाविशेष दिखाये हैं, वैसे शिल्पविद्या से और सृष्टि के दृष्टान्त से विशेष रचना किया करें और हिंसक तथा कुत्तों के पालनेवाले चण्डालादि को दूर बसावें ॥७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(तपसे) तपनाय (कौलालम्) कुलालपुत्रम् (मायायै) प्रज्ञावृद्धये। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम् ॥ (निघ०३.९) (कर्मारम्) यः कर्माण्यलंकरोति तम् (रूपाय) सुरूपनिर्मापकाय (मणिकारम्) यो मणीन् करोति तम् (शुभे) शुभाचरणाय (वपम्) यो वपति क्षेत्राणि कृषीवल इव विद्यादिशुभान् गुणाँस्तम् (शरव्यायै) शराणां निर्माणाय (इषुकारम्) य इषून् बाणान् करोति तम् (हेत्यै) वज्रादिशस्त्रनिर्माणाय (धनुष्कारम्) यो धनुरादीनि करोति तम् (कर्मणे) क्रियासिद्धये (ज्याकारम्) यो ज्यां प्रत्यञ्चां करोति तम् (दिष्टाय) दिशत्यतिसृजति येन तस्मै (रज्जुसर्जम्) यो रज्जूः सृजति तम् (मृत्यवे) मृत्युकरणाय प्रवृत्तम् (मृगयुम्) य आत्मानो मृगान् हन्तुमिच्छति तं व्याधम् (अन्तकाय) यो अन्तं करोति तस्मै हितकरम् (श्वनिनम्) बहुश्वपालम् ॥७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर नरेश वा ! त्वं तपसे कौलालं, मायायै कर्मारं, रूपाय मणिकारं, शुभे वपं, शरव्यायै इषुकारं, हेत्यै धनुष्कारं, कर्मणे ज्याकारं, दुष्टाय रज्जुसर्जमासुव। मृत्यवे मृगयुमन्तकाय श्वनिनं परासुव ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुषैर्यथा परमेश्वरेण सृष्टौ रचनाविशेषा दर्शितास्तथा शिल्पविद्यया सृष्टिदृष्टान्तेन च रचनाविशेषाः कर्त्तव्याः। हिंसकाः श्वपालिनश्चाण्डालादयो दूरे निवासनीयाः ॥७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वराची सृष्टीरचना जशी विशेषत्वाने दिसून येते तसे राजपुरुषांनीही या सृष्टीला पाहून शिल्पविद्येद्वारे विशेष रचना करावी व हिंसक आणि उपद्रवी लोकांना दूर ठेवावे.