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                              हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
                   पदार्थान्वयभाषाः -  हे (देव) उत्तमगुणकर्मस्वभावयुक्त (सवितः) उत्तम गुण-कर्म-स्वभावों में प्रेरणा देनेवाले परमेश्वर ! आप हमारे (विश्वानि) सब (दुरितानि) दुष्ट आचरण वा दुःखों को (परा, सुव) दूर कीजिए और (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारी धर्मयुक्त आचरण वा सुख है, (तत्) उस को (नः) हमारे लिए (आ, सुव) अच्छे प्रकार उत्पन्न कीजिए ॥३ ॥              
                              
                
                                
                    भावार्थभाषाः -  इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे उपासना किया हुआ जगदीश्वर अपने भक्तों को दुष्ट आचरण से निवृत्त कर श्रेष्ठ आचरण में प्रवृत्त करता है, वैसे राजा भी अधर्म से प्रजाओं को निवृत्त कर धर्म में प्रवृत्त करे और आप भी वैसा होवे ॥३ ॥                
                                
                
                                
                                  
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                              संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
                  अन्वय:  
              
                                          (विश्वानि) समग्राणि (देव) दिव्यगुणकर्मस्वभाव (सवितः) उत्तमगुणकर्मस्वभावेषु प्रेरक परमेश्वर ! (दुरितानि) दुष्टाचरणानि दुःखानि वा (परा) दूरार्थे (सुव) गमय (यत्) (भद्रम्) भन्दनीयं धर्म्याचरणं सुखं वा (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (आ) समन्तात् (सुव) जनय ॥३ ॥
                   पदार्थान्वयभाषाः -  हे देव सवितस्त्वमस्मद्विश्वानि दुरितानि परा सुव यद्भद्रं तन्न आ सुव ॥३ ॥              
                              
                
                                
                    भावार्थभाषाः -  अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोपासितो जगदीश्वरस्स्वभक्तान् दुष्टाचारान्निवर्त्य श्रेष्ठाचारे प्रवर्त्तयति, तथा राजाऽपि प्रजा अधर्मान्निवर्त्य धर्मे प्रवर्त्तयेत्, स्वयमपि तथा स्यात् ॥३ ॥                
                                
                
                                
                                  
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                              मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
                    भावार्थभाषाः -  या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. परमेश्वर जसा आपल्या भक्तांना दुष्ट आचरणापासून दूर करून श्रेष्ठ आचरणाकडे वळवितो तसे राजानेही प्रजेला अधर्मापासून दूर करून धर्माकडे वळवावे व स्वतःही तसेच वागावे.                 
                                
                
                                
                                  
              
                  