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बी॒भ॒त्सायै॑ पौल्क॒सं वर्णा॑य हिरण्यकारं तु॒लायै॑ वाणि॒जं प॑श्चादो॒षाय॑ ग्ला॒विनं॒ विश्वे॑भ्यो भू॒तेभ्यः॑ सिध्म॒लं भूत्यै॑ जागर॒णमभू॑त्यै स्वप॒नमार्त्यै॑ जनवा॒दिनं॒ व्यृ᳖द्ध्याऽअपग॒ल्भꣳ सꣳश॒राय॑ प्र॒च्छिद॑म् ॥१७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बी॒भ॒त्सायै॑। पौ॒ल्क॒सम्। वर्णा॑य। हि॒र॒ण्य॒का॒रमिति॑ हिरण्यऽका॒रम्। तु॒लायै॑। वा॒णि॒जम्। प॒श्चा॒दो॒षायेति॑ पश्चाऽदो॒षाय॑। ग्ला॒विन॑म्। विश्वे॑भ्यः। भू॒तेभ्यः॑। सि॒ध्म॒लम्। भूत्यै॑। जा॒ग॒र॒णम्। अभू॑त्यै। स्व॒प॒नम्। आर्त्या॒ इत्याऽऋ॑त्यै। ज॒न॒वा॒दिन॒मिति॑ जनऽवा॒दिन॑म्। व्यृ᳖द्ध्या इति॒ विऽऋ॑ध्यै। अ॒प॒ग॒ल्भमित्य॑पऽग॒ल्भम्। स॒ꣳश॒रायेति॑ सम्ऽश॒राय॑। प्र॒च्छिद॒मिति॑ प्र॒ऽच्छिद॑म् ॥१७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:30» मन्त्र:17


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर वा राजन् ! आप (बीभत्सायै) धमकाने के लिए प्रवृत्त हुए (पौल्कसम्) भंगी के पुत्र को (पश्चादोषाय) पीछे दोष को प्रवृत्त हुए (ग्लाविनम्) हर्ष को नष्ट करनेवाले को (अभूत्यै) दरिद्रता के अर्थ समर्थ (स्वपनम्) सोने को (व्यृद्ध्यै) संपत् के बिगाड़ने के अर्थ प्रवृत्त हुए (अपगल्भम्) प्रगल्भतारहित पुरुष को तथा (संशराय) सम्यक् मारने के लिए प्रवृत्त हुए (प्रच्छिदम्) अधिक छेदन करनेवाले को पृथक् कीजिए और (वर्णाय) सुन्दर रूप बनाने के लिए (हिरण्यकारम्) सुनार वा सूर्य्य को (तुलायै) तोलने के अर्थ (वाणिजम्) बणिये के पुत्र को (विश्वेभ्यः) सब (भूतेभ्यः) प्राणियों के लिए (सिध्मलम्) सुख सिद्ध करनेवाले जिस के सहायी हों, उस जन को (भूत्यै) ऐश्वर्य होने के अर्थ (जागरणम्) प्रबोध को और (आर्त्यै) पीड़ा की निवृत्ति के लिए (जनवादिनम्) मनुष्यों को प्रशंसा के योग्य वाद-विवाद करनेवाले उत्तम मनुष्य को उत्पन्न वा प्रकट कीजिए ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य नीचों का सङ्ग छोड़ के उत्तम पुरुषों की सङ्गति करते हैं, वे सब व्यवहारों की सिद्धि से ऐश्वर्यवाले हाते हैं। जो अनालसी होके सिद्धि के लिए यत्न करते, वे सुखी और जो आलसी होते वे दरिद्रता को प्राप्त होते हैं ॥१७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(बीभत्सायै) भर्त्सनाय प्रवृत्तम् (पौल्कसम्) पुक्कसस्यान्त्यजस्याऽपत्यम्। अत्र पृषोदरादित्वादभीष्टसिद्धिः (वर्णाय) सुरूपसंपादनाय (हिरण्यकारम्) सुवर्णकारं सूर्यं वा (तुलायै) तोलनाय (वाणिजम्) वणिगपत्यम् (पश्चादोषाय) पश्चाद्दोषदानाय प्रवृत्तम् (ग्लाविनम्) अहर्षितारम् (विश्वेभ्यः) सर्वेभ्यः (भूतेभ्यः) (सिध्मलम्) सिध्माः सुखसाधका विद्यन्ते यस्य तम् (भूत्यै) ऐश्वर्याय (जागरणम्) जागृतम् (अभूत्यै) अनैश्वर्याय (स्वपनम्) निद्राम् (आर्त्यै) पीडानिवृत्तये (जनवादिनम्) प्रशस्ता जनवादा विद्यन्ते यस्य तम् (व्यृद्ध्यै) विगता चासौ ऋद्धिश्च व्यृद्धिस्तस्यै (अपगल्भम्) प्रगल्भतारहितम् (संशराय) सम्यग्घिंसनाय प्रवृत्तम् (प्रच्छिदम्) यः प्रच्छिनत्ति तम् ॥१७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ईश्वर वा राजन् ! त्वं बीभत्सायै पौल्कसं पश्चादोषाय ग्लाविनमभूत्यै स्वपनं व्यृद्ध्या अपगल्भं संशराय प्रच्छिदं परासुव। वर्णाय हिरण्यकारं तुलायै वाणिजं विश्वेभ्यो भूतेभ्यः सिध्मलं भूत्यै जागरणमार्त्यै जनवादिनमासुव ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या नीचसङ्गं त्यक्त्वोत्तमसङ्गतिं कुर्वन्ति, ते सर्वव्यवहारसिद्ध्यैश्वर्यवन्तो जायन्ते। येऽनलसाः सन्तः सिद्धये यतन्ते, ते सुखं ये चाऽलसास्ते च दारिद्र्यमाप्नुवन्ति ॥१७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे नीच माणसांची संगती सोडून उत्तम पुरुषांची संगती करतात त्यांचे सर्व व्यवहार सिद्ध होऊन ते ऐश्वर्यवान बनतात. जे उद्योगी बनून यत्न करतात ते सुखी होतात व जे आळशी असतात ते दारिद्र्यातच राहतात.