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आ न॑ऽएतु॒ मनः॒ पुनः॒ क्रत्वे॒ दक्षा॑य जी॒वसे॑। ज्योक् च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥५४॥

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पद पाठ

आ। नः॒। ए॒तु॒। मनः॑। पुन॒रिति॒ पुनः॑। क्रत्वे॑। दक्षा॑य। जी॒वसे॑। ज्योक्। च॒। सूर्य॑म्। दृ॒शे ॥५४॥

यजुर्वेद » अध्याय:3» मन्त्र:54


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह मन कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मनः) जो स्मरण करनेवाला चित्त (ज्योक्) निरन्तर (सूर्यम्) परमेश्वर, सूर्यलोक वा प्राण को (दृशे) देखने वा (क्रत्वे) उत्तम विद्या वा उत्तम कर्मों की स्मृति वा (जीवसे) सौ वर्ष से अधिक जीने (च) और अन्य शुभ कर्मों के अनुष्ठान के लिये है, वह (नः) हम लोगों को (पुनः) वार-वार जन्म-जन्म में (आ) सब प्रकार से (एतु) प्राप्त हो ॥५४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को [चाहिये कि] उत्तम कर्मों के अनुष्ठान के लिये चित्त की शुद्धि वा जन्म-जन्म में उत्तम चित्त की प्राप्ति ही की इच्छा करें, जिससे मनुष्य जन्म को प्राप्त होकर ईश्वर की उपासना का साधन करके उत्तम-उत्तम धर्मों का सेवन कर सकें ॥५४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तन्मनः कीदृशमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (एतु) प्राप्नोतु (मनः) स्मरणात्मकं चित्तम् (पुनः) वारं वारं जन्मनि जन्मनि वा (क्रत्वे) सद्विद्याशुभकर्मानुभूतसंस्कारस्मृतये। क्रतुरिति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (दक्षाय) बलप्राप्तये। दक्ष इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (जीवसे) जीवितुम्। अत्र तुमर्थे से० [अष्टा०३.४.९। इत्यसे प्रत्ययः (ज्योक्) निरन्तरम् (च) समुच्चये (सूर्यम्) परमेश्वरं सवितृमण्डलं प्राणं वा (दृशे) द्रष्टुम्। अत्र दृशे विख्ये च (अष्टा०३.४.११) इत्ययं निपातितः। अयं मन्त्रः (शत०२.६.१.३९) व्याख्यातः ॥५४॥

पदार्थान्वयभाषाः - यन्मनश्चित्तं ज्योक् निरन्तरं सूर्यं दृशे क्रत्वे दक्षाय जीवसे चान्येषां शुभकर्मणामनुष्ठानायास्ति तन्नोऽस्मान् पुनः पुनरासमन्तादेतु प्राप्नोतु ॥५४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः श्रेष्ठकर्मानुष्ठानेन चित्तशुद्धिं कृत्वा पुनः पुनर्जन्मनि चित्तप्राप्तिरेवापेक्ष्या येन मनुष्यजन्म प्राप्येश्वरोपासनं संराध्य निरन्तरं सद्धर्मोऽनुसेव्य इति ॥५४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी उत्तम कर्म करण्यासाठी चित्त निर्मळ करावे व जन्मजन्मांतरी उत्तम चित्त प्राप्त व्हावे, अशीच कामना करावी. ज्यामुळे मनुष्य जन्म प्राप्त होऊन ईश्वराच्या उपासनेचे साधन मिळून उत्तम धर्माचे ग्रहण करता येऊ शकते.