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मनो॒ न्वाह्वा॑महे नाराश॒ꣳसेन॒ स्तोमे॑न। पि॒तॄ॒णां च॒ मन्म॑भिः ॥५३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मनः॑। नु। आ। ह्वा॒म॒हे॒। ना॒रा॒श॒ꣳसेन॑। स्तोमे॑न। पि॒तॄ॒णाम्। च॒। मन्म॑भि॒रिति॒ मन्म॑ऽभिः ॥५३॥

यजुर्वेद » अध्याय:3» मन्त्र:53


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

इसके आगे मन के लक्षण का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (नाराशंसेन) पुरुषों के अत्यन्त प्रशंसनीय (स्तोमेन) स्तुतियुक्त व्यवहार और (पितॄणाम्) पालना करनेवाले ऋतु वा ज्ञानवान् मनुष्यों के (मन्मभिः) जिनसे सब गुण जाने जाते हैं, उन गुणों के साथ (मनः) संकल्पविकल्पात्मक चित्त को (न्वाह्वामहे) सब ओर से हटाके दृढ़ करते हैं ॥५३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को मनुष्यजन्म की सफलता के लिय विद्या आदि गुणों से युक्त मन को करना चाहिये। जैसे ऋतु अपने-अपने गुणों को क्रम-क्रम से प्रकाशित करते हैं, तथा जैसे विद्वान् लोग क्रम-क्रम से अनेक प्रकार की अन्य-अन्य विद्याओं को साक्षात्कार करते हैं, वैसा ही पुरुषार्थ करके सब मनुष्यों को निरन्तर विद्या और प्रकाश की प्राप्ति करनी चाहिये ॥५३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनसो लक्षणमुपदिश्यते ॥

अन्वय:

(मनः) मननशीलं संकल्पविकल्पात्मकम् (नु) क्षिप्रार्थे (आ) समन्तात् क्रियायोगे (ह्वामहे) स्पर्धामहे (नाराशंसेन) नराणां समन्ताच्छंसः प्रशंसनं नराशंसः, नराशंसेन निर्वृत्तस्तेन (स्तोमेन) स्तुतियुक्तेन व्यवहारेण (पितॄणाम्) पालकानामृतूनां ज्ञानवतां मनुष्याणां वा (च) समुच्चये (मन्मभिः) मन्यन्ते जानन्ति यैस्तैः। अत्र सर्वधातुभ्यो मनिन् (उणा०४.१४५) इति मनिन् प्रत्ययः। अयं मन्त्रः (शत०२.६.१.३९) व्याख्यातः ॥५३॥

पदार्थान्वयभाषाः - वयं नाराशंसेन स्तोमेन पितॄणां च मन्मभिर्मनो न्वाह्वामहे ॥५३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्मनुष्यजन्मसाफल्यार्थं विद्यादिगुणयुक्तं मनः कर्तव्यम्। यथर्तवः स्वान् स्वान् गुणान् क्रमेण प्रकाशयन्ति, यथा च विद्वांसः क्रमशोऽन्यामन्यां च विद्यां साक्षात् कुर्वन्ति, तथैव सततमनुष्ठाय विद्याप्रकाशौ प्राप्तव्यौ ॥५३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - मनुष्य जन्म सफल व्हावा, यासाठी माणसांनी आपले मन, विद्या इत्यादी गुणांनीयुक्त करावे. जसे ऋतू आपले गुणधर्म क्रमाक्रमाने प्रकट करतात व विद्वानही क्रमाने अनेक प्रकारच्या विद्यांचा साक्षात्कार करतात तसे सर्व माणसांनी सतत पुरुषार्थाने विद्येची व प्रकाशाची प्राप्ती करून घ्यावी.