दे॒हि मे॒ ददा॑मि ते॒ नि मे॑ धेहि॒ नि ते॑ दधे। नि॒हारं॑ च॒ हरा॑सि मे नि॒हारं॒ निह॑राणि ते॒ स्वाहा॑ ॥५०॥
दे॒हि। मे॒। ददा॑मि। ते॒। नि। मे॒। धे॒हि॒। नि। ते॒। द॒धे॒। नि॒हार॒मिति॑ नि॒ऽहार॑म्। च॒। हरा॑सि। मे॒। नि॒हार॒मिति॑ नि॒ऽहार॑म्। नि। ह॒रा॒णि॒। ते॒। स्वाहा॑ ॥५०॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अगले मन्त्र में सब आश्रमों में रहनेवाले मनुष्यों के व्यवहारों का उपदेश किया है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ सर्वाश्रमव्यवहार उपदिश्यते ॥
(देहि) (मे) मह्यम् (ददामि) (ते) तुभ्यम् (नि) नितराम् (मे) मम (धेहि) धारय (नि) नितराम् (ते) तव (दधे) धारये (निहारम्) मूल्येन क्रेतव्यं वस्तु नितरां ह्रियते तत् (च) समुच्चये (हरासि) हर प्रयच्छ, अयं लेट् प्रयोगः। (मे) मह्यम् (निहारम्) पदार्थमूल्यम् (नि) नितराम् (हराणि) प्रयच्छानि (ते) तुभ्यम् (स्वाहा) सत्या वागाह। अयं मन्त्रः (शत०२.५.३.१९-२०) व्याख्यातः ॥५०॥