अक्र॒न् कर्म॑ कर्म॒कृतः॑ स॒ह वा॒चा म॑यो॒भुवा॑। दे॒वेभ्यः॒ कर्म॑ कृ॒त्वास्तं॒ प्रेत॑ सचाभुवः ॥४७॥
अक्र॑न्। कर्म॑। क॒र्म॒कृत॒ इति॑ कर्म॒ऽकृतः॑। स॒ह। वा॒चा। म॒यो॒भुवेति॑ मयः॒ऽभुवा॑। दे॒वभ्यः॑। कर्म॑। कृ॒त्वा। अस्त॑म्। प्र। इ॒त। स॒चा॒भु॒व॒ इति॑ सचाऽभुवः ॥४७॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
कौन-कौन मनुष्य यज्ञ युद्ध आदि कर्मों के करने को योग्य होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
के यज्ञयुद्धादिकर्माणि कर्तुं योग्या भवन्तीत्युपदिश्यते ॥
(अक्रन्) कुर्वन्ति (अत्र) लिङर्थे लुङ्। मन्त्रे घसह्वर० [अष्टा०२.४.८०] इति च्लेर्लुक्। (कर्म) कर्तुरीप्सिततमं कर्म (अष्टा०१.४.४९) कर्तुर्यदीप्सितमभीष्टयोग्यं चेष्टामयमुत्क्षेपणादिकमस्ति तत्कर्म्म (कर्मकृतः) ये कर्माणि कुर्वन्ति ते (सह) सङ्गे (वाचा) वेदवाण्या, स्वकीयया वा (मयोभुवा) या मयः सुखं भावयति तया सत्यप्रियमङ्गलकारिण्या। मय इति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। क्विप् च [अष्टा०३.२.७५] इति क्विप्। (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यगुणसुखेभ्यो वा (कर्म) क्रियमाणम् (कृत्वा) अनुष्ठाय (अस्तम्) सुखमयं गृहम्। अस्तमिति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (प्र) प्रकृष्टार्थे (इत) प्राप्नुवन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (सचाभुवः) ये सचा परस्परं संग्यनुषङ्गिणो भवन्ति ते। अयं मन्त्रः (शत०२.५.२.२९) व्याख्यातः ॥४७॥