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अ॒स्य प्र॒त्नामनु॒ द्युत॑ꣳ शु॒क्रं दु॑दुह्रे॒ऽअह्र॑यः। पयः॑ सहस्र॒सामृषि॑म् ॥१६॥

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पद पाठ

अ॒स्य। प्र॒त्नाम्। अनु॑। द्युत॑म्। शु॒क्रम्। दु॒दु॒ह्रे॒। अह्र॑यः। पयः॑। स॒ह॒स्र॒सामिति॑ सहस्र॒ऽसाम्। ऋषि॑म् ॥१६॥

यजुर्वेद » अध्याय:3» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अह्रयः) सब विद्याओं को व्याप्त करानेवाले विद्वान् लोग (अस्य) इस भौतिक अग्नि की (सहस्रसाम्) असंख्यात कार्यों को देने वा (ऋषिम्) कार्यसिद्धि के प्राप्ति का हेतु (प्रत्नाम्) प्राचीन अनादिस्वरूप से नित्य वर्त्तमान (द्युतम्) कारण में रहनेवाली दीप्ति को जानकर (शुक्रम्) शुद्ध कार्यों को सिद्ध करनेवाले (पयः) जल को (अनु दुदुह्रे) अच्छे प्रकार पूरण करते हैं अर्थात् अग्नि में हवनादि करके वृष्टि से संसार को पूरण करते हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को जैसे गुणसहित अग्नि का कारणरूप वा अनादिपन से नित्यपन जानना योग्य है, वैसे ही जगत् के अन्य पदार्थों का भी कारणरूप से अनादिपन जानना चाहिये। इनको जानकर कार्यों में उपयुक्त करके सब व्यवहारों की सिद्धि करनी चाहिये ॥१६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अस्य) अग्नेः (प्रत्नाम्) अनादिवर्त्तमानां पुराणीमनादिस्वरूपेण नित्याम्। प्रत्नमिति पुराणनामसु पठितम्। (निघं०३.२७) (अनु) पश्चादर्थे (द्युतम्) कारणस्थां दीप्तिम्। अत्र द्युत दीप्तावित्यस्मात् क्विप् प्रत्ययः। (शुक्रम्) शुद्धं कार्यकरं साधनम् (दुदुह्रे) प्रपूरयन्ति। अत्र वर्तमाने लिट्। इरयो रे [अष्टा०६.४.७६] अनेनेरेजित्यस्य स्थाने रे आदेशः। (अह्रयः) अह्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति सर्वा विद्या ये ते विद्वांसः। अत्राऽह व्याप्तावित्यस्माद् बाहुलकेनौणादिकः किः प्रत्ययः। महीधरेणायं ह्री लज्जायामित्यस्य प्रयोगोऽशुद्ध एव व्याख्यात इति। (पयः) जलम्। पय इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (सहस्रसाम्) या सहस्राण्यसंख्यातानि कार्याणि सनोति ताम् (ऋषिम्) कार्यसिद्धिप्राप्तिहेतुम्। अत्र इगुपधात् कित् [उणा०४.१२०] अनेन ऋषी गतावित्यस्माद्धातोरिन् प्रत्ययः। अयं मन्त्रः (शत०२.३.४.१५) व्याख्यातः ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - अह्रयो विद्वांसोऽस्याग्नेः सहस्रसामृषिं प्रत्नां द्युतं ज्ञात्वा शुक्रं पयश्चानुदुदुह्रे प्रपूरयन्ति ॥१६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यथाग्नेस्स्वगुणसहितस्य कारणरूपेणानादित्वेन नित्यत्वं विज्ञेयमस्ति, तथैवान्येषामपि जगत्स्थानां कार्यद्रव्याणां कारणरूपेणानादित्वं वेदितव्यमम्, एतद्विदित्वैतानग्न्यादीन् पदार्थान् कार्येषूपकृत्य सर्वे व्यवहाराः संसाधनीया इति ॥१६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी हे जाणून घ्यावे की, अग्नी हा कारणरूप, अनादी व नित्य आहे तसेच जगातील अन्य पदार्थही कारणरूपाने अनादी आहेत हे जाणावे व त्यांना सर्व कार्यात आणि व्यवहारात प्रयुक्त करावे.