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दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा सु॒वाचा॒ मिमा॑ना य॒ज्ञं मनु॑षो॒ यज॑ध्यै। प्र॒चो॒दय॑न्ता वि॒दथे॑षु का॒रू प्रा॒चीनं॒ ज्योतिः॑ प्र॒दिशा॑ दि॒शन्ता॑ ॥३२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दैव्या॑। होता॑रा। प्र॒थ॒मा। सु॒वाचेति॑ सु॒ऽवाचा॑। मिमा॑ना। य॒ज्ञम्। मनु॑षः। यज॑ध्यै। प्र॒चो॒दय॒न्तेति॑ प्रऽचो॒दय॑न्ता। वि॒दथे॑षु। का॒रूऽइति॑ का॒रू। प्रा॒चीन॑म्। ज्योतिः॑। प्र॒दिशेति॑ प्र॒ऽदिशा॑। दि॒शन्ता॑ ॥३२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब कारीगर लोगों को क्या करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (दैव्या) विद्वानों में कुशल (होतारा) दानशील (प्रथमा) प्रसिद्ध (सुवाचा) प्रशंसित वाणीवाले (मिमाना) विधान करते हुए (यज्ञम्) सङ्गतिरूप यज्ञ के (यजध्यै) करने को (मनुषः) मनुष्यों को (विदधेषु) विज्ञानों में (प्रचोदयन्ता) प्रेरणा करते हुए (प्रदिशा) वेदशास्त्र के प्रमाण से (प्राचीनम्) सनातन (ज्योतिः) शिल्पविद्या के प्रकाश का (दिशन्ता) उपदेश करते हुए (कारू) दो कारीगर लोग होवें, उनसे शिल्प विज्ञान शास्त्र पढ़ना चाहिए ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में (कारू) शब्द में द्विवचन अध्यापक और हस्तक्रियाशिक्षक इन दो शिल्पियों के अभिप्राय से है। जो कारीगर होवें, वे जितनी शिल्पविद्या जानें, उतनी सब दूसरों के लिए शिक्षा करें, जिससे उत्तर-उत्तर विद्या की सन्तति बढ़े ॥३२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शिल्पिभिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(दैव्या) देवेषु कुशलौ (होतारा) दातारौ (प्रथमा) प्रख्यातौ (सुवाचा) प्रशस्तवाचौ (मिमाना) विदधतौ (यज्ञम्) सङ्गतिमयम् (मनुषः) मनुष्यान् (यजध्यै) यष्टुम् (प्रचोदयन्ता) प्रेरयन्तौ (विदथेषु) विज्ञानेषु (कारू) शिल्पिनौ (प्राचीनम्) प्राक्तनम् (ज्योतिः) शिल्पविद्याप्रकाशम् (प्रदिशा) वेदादिशास्त्रप्रदेशेन निर्देशेन प्रमाणेन (दिशन्ता) उपदिशन्तौ ॥३२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यो दैव्या होतारा प्रथमा सुवाचा मिमाना यज्ञं यजध्यै मनुषो विदथेषु प्रचोदयन्ता प्रदिशा प्राचीनं ज्योतिर्दिशन्ता कारू भवेतां ताभ्यां शिल्पविज्ञानशास्त्रमध्येयम् ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र कारुशब्दे द्विवचनमध्यापकहस्तक्रियाशिक्षकाभिप्रायम्। ये शिल्पिनः स्युस्ते यावद् विजानीयुस्तावत् सर्वमन्येभ्यः शिक्षयेयुः। यत उत्तरोत्तरं विद्यासन्ततिर्वर्धेत ॥३२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात (कारू) शब्द द्विवचनात आहे. तो शब्द अध्यापक व हस्तक्रिया शिक्षकांबद्दल आलेला आहे. जे कारागीर जितकी हस्तविद्या जाणतात ती त्यांनी इतरांना द्यावी. त्यामुळे ती विद्या उत्तरोत्तर वाढत जाईल.