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आ सु॒ष्वय॑न्ती यज॒तेऽउपा॑केऽउ॒षासा॒नक्ता॑ सदतां॒ नि योनौ॑। दि॒व्ये योष॑णे बृह॒ती सु॑रु॒क्मेऽअधि॒ श्रिय॑ꣳ शुक्र॒पिशं॒ दधा॑ने ॥३१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। सु॒ष्वय॑न्ती। सु॒स्वय॑न्ती॒ इति॑ सु॒ऽस्वय॑न्ती। य॒ज॒तेऽइति॑ यज॒ते। उपा॑के॒ऽइत्युपा॑के। उ॒षासा॒नक्ता॑। उ॒षसा॒नक्तेत्यु॒षसा॒नक्ता॑। स॒द॒ता॒म्। नि। योनौ॑। दि॒व्येऽइति॑ दि॒व्ये। योष॑णे॒ऽइति॒ योष॑णे। बृ॒ह॒तीऽइति॑ बृह॒ती। सु॒रु॒क्मे इति॑ सुऽरु॒क्मे। अधि॑। श्रिय॑म्। शु॒क्र॒पिश॒मिति॑ शुक्र॒ऽपिश॑म्। दधा॑ने॒ऽइति॒ दधा॑ने ॥३१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजप्रजा धर्म अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यदि (दिव्ये) उत्तम गुण-कर्म-स्वभाववाली (योषणे) दो स्त्रियों के समान (सुरुक्मे) सुन्दर शोभायुक्त (बृहतीः) बड़ी (अधि) अधिक (श्रियम्) शोभा व लक्ष्मी को तथा (शुक्रपिशम्) प्रकाश और अन्धकाररूपों को (दधाने) धारण करती हुई (सुष्वयन्ती) सोती हुइयों के समान (उपाके) निकटवर्त्तिनी (उषासानक्ता) दिन-रात (योनौ) कालरूप कारण में (नि, आ, सदताम्) निरन्तर अच्छे प्रकार चलते हैं, उनको (यजते) सङ्गत करते तो अतुल शोभा को प्राप्त होओ ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे काल के साथ वर्त्तमान रात-दिन एक दूसरे से सम्बद्ध विलक्षण स्वरूप से वर्त्तते हैं, वैसे राजा-प्रजा परस्पर प्रीति के साथ वर्त्ता करें ॥३१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रजाधर्ममाह ॥

अन्वय:

(आ) समन्तात् (सुष्वयन्ती) सुष्ठु शयाने इव। अत्र वर्णव्यत्ययेन पस्य स्थाने यः। (यजते) सङ्गच्छते (उपाके) सन्निहिते (उषासानक्ता) रात्रिदिने (सदताम्) गच्छतः (नि) नितराम् (योनौ) कालाख्ये कारणे (दिव्ये) दिव्यगुणकर्मस्वभावे (योषणे) स्त्रियाविव (बृहती) महान्त्यौ (सुरुक्मे) सुशोभमाने (अधि) उपरि (श्रियम्) शोभां लक्ष्मीं वा (शुक्रपिशम्) शुक्रं भास्वरं पिशं तद्विपरीतं कृष्णं च (दधाने) धारयन्त्यौ ॥३१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यदि दिव्ये योषणे इव सुरुक्मे बृहती अधिश्रियं शुक्रपिशं च दधाने सुष्वयन्ती उपाके उषासानक्ता योनौ न्या सदतां ते भवान् यजते तर्ह्यतुलां श्रियं प्राप्नुयात् ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा कालेन सह वर्त्तमाने रात्रिदिने परस्परेण सम्बद्धे विलक्षणस्वरूपेण वर्त्तेते, तथा राजप्रजे परस्परं प्रीत्या वर्त्तेयाताम् ॥३१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! रात्र व दिवस हे जसे काळाशी संबंधित असून, त्यांचे स्वरूप विलक्षण असते तसे राजा व प्रजा यांनी प्रेमाने वागावे.