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व्यच॑स्वतीरुर्वि॒या वि श्र॑यन्तां॒ पति॑भ्यो॒ न जन॑यः॒ शुम्भ॑मानाः। देवी॑र्द्वारो बृहतीर्विश्वमिन्वा दे॒वेभ्यो॑ भवत सुप्राय॒णाः ॥३० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व्यच॑स्वतीः। उ॒र्वि॒या। वि। श्र॒य॒न्ता॒म्। पति॑भ्य॒ इति॒ पति॑ऽभ्यः। न। जन॑यः। शुम्भ॑मानाः। देवीः॑। द्वारः॒। बृ॒ह॒तीः॒। वि॒श्व॒मि॒न्वा॒ इति॑ विश्वम्ऽइन्वाः। दे॒वेभ्यः॑। भ॒व॒त॒। सु॒प्रा॒य॒णाः। सु॒प्रा॒य॒ना इति॑ सुऽप्राय॒नाः ॥३० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:30


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्री-पुरुष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (उर्विया) अधिकता से शुभ गुणों में (व्यचस्वतीः) व्याप्तिवाली (बृहतीः) महती (विश्वमिन्वाः) सब व्यवहारों में व्याप्त (सुप्रायणाः) जिनके होने में उत्तम घर हों (देवीः) आभूषणादि से प्रकाशमान (द्वारः) दरवाजों के (न) समान अवकाशवाली (पतिभ्यः) पाणिग्रहण विवाह करनेवाले (देवेभ्यः) उत्तम गुणयुक्त पतियों के लिए (शुम्भमानाः) उत्तम शोभायमान हुई (जनयः) सब स्त्रियाँ अपने अपने पतियों को (वि, श्रयन्ताम्) विशेष कर सेवन करें, वैसे तुम लोग सब विद्याओं में व्यापक (भवत) होओ ॥३० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे व्यापक हुई दिशा अवकाश देने और सब के व्यवहारों की साधक होने से आनन्द देनेवाली होती है, वैसे ही आपस में प्रसन्न हुए स्त्रीपुरुष उत्तम सुखों को प्राप्त हो के अन्यों के हितकारी होवें ॥३० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषौ किं कुर्यातामित्याह।

अन्वय:

(व्यचस्वतीः) शुभगुणेषु व्याप्तिमतीः (उर्विया) बहुत्वेन (वि) (श्रयन्ताम्) सेवन्ताम् (पतिभ्यः) गृहीतपाणिभ्यः (न) इव (जनयः) जायाः (शुम्भमानाः) सुशोभायुक्ताः (देवीः) देदीप्यमानाः (द्वारः) द्वारोऽवकाशरूपाः (बृहतीः) महतीः (विश्वमिन्वाः) विश्वव्यवहारव्यापिन्यः (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः (भवत) (सुप्रायणाः) सुष्ठु प्रकृष्टमयनं गृहं यासु ताः ॥३० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा उर्विया व्यचस्वतीर्बृहतीर्विश्वमिन्वाः सुप्रायणा देवीर्द्वारो नेव पतिभ्यो देवेभ्यः शुम्भमाना जनयः सर्वान् स्वस्वपतीन् विश्रयन्तां तथा यूयं सर्वविद्यासु व्यापका भवत ॥३० ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा व्यापिका दिशोऽवकाशप्रदानेन सर्वेषां व्यवहारसाधकत्वेनानन्दप्रदाः सन्ति, तथैव परस्परस्मिन् प्रीताः स्त्रीपुरुषा दिव्यानि सुखानि लब्ध्वाऽन्येषां हितकराः स्युः ॥३० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. सर्वत्र व्यापक असणारी वेळ व व्यवहार यांची साधक असणारी दिशा ही जशी आनंददायक असते. तसे स्री-पुरुषांनी आपापसात प्रसन्न राहून उत्तम सुख प्राप्त करावे व इतरांचे हित करावे.