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नरा॒शꣳस॑स्य महि॒मान॑मेषा॒मुप॑ स्तोषाम यज॒तस्य॑ य॒ज्ञैः। ये सु॒क्रत॑वः॒ शुच॑यो धिय॒न्धाः स्वद॑न्ति दे॒वाऽउ॒भया॑नि ह॒व्या ॥२७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नरा॒शꣳस॑स्य। म॒हि॒मान॑म्। ए॒षा॒म्। उप॑। स्तो॒षा॒म॒। य॒ज॒तस्य॑। य॒ज्ञैः। ये। सु॒क्रत॑व॒ इति॑ सु॒ऽक्रत॑वः। शुच॑यः। धि॒य॒न्धा इति॑ धिय॒म्ऽधाः। स्वद॑न्ति। दे॒वाः। उ॒भया॑नि। ह॒व्या ॥२७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:27


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (ये) जो (सुक्रतवः) सुन्दर बुद्धियों और कर्मोंवाले (शुचयः) पवित्र (धियन्धाः) श्रेष्ठ धारणावती बुद्धि और कर्म को धारण करनेहारे (देवाः) विद्वान् लोग (उभयानि) दोनों शरीर और आत्मा को सुखकारी (हव्या) भोजन के योग्य पदार्थों को (स्वदन्ति) भोगते हैं। (एषाम्) इन विद्वानों के (यज्ञैः) सत्सङ्गादि रूप यज्ञों से (नराशंसस्य) मनुष्यों से प्रशंसित (यजतस्य) सङ्ग करने योग्य व्यवहार के (महिमानम्) बड़प्पन को (उप, स्तोषाम) समीप प्रशंसा करें, वैसे तुम लोग भी करो ॥२७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग स्वयं पवित्र बुद्धिमान् वेद शास्त्र के वेत्ता नहीं होते, वे दूसरों को भी विद्वान् पवित्र नहीं कर सकते। जिनके जैसे गुण, जैसे कर्म हों, उनकी धर्मात्मा लोगों को यथार्थ प्रशंसा करनी चाहिए ॥२७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(नराशंसस्य) नरैः प्रशंसितस्य (महिमानम्) महत्त्वम् (एषाम्) (उप) (स्तोषाम) प्रशंसेम। लेट् उत्तमबहुवचने रूपम्। (यजतस्य) सङ्गन्तुं योग्यस्य (यज्ञैः) सङ्गादिलक्षणैः (ये) (सुक्रतवः) शोभनप्रज्ञाकर्माणः (शुचयः) पवित्राः (धियन्धाः) ये श्रेष्ठां प्रज्ञामुत्तमं कर्म दधति ते (स्वदन्ति) भुञ्जते (देवाः) विद्वांसः (उभयानि) शरीरात्मसुखकराणि (हव्या) हव्यानि अत्तुमर्हाणि ॥२७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा वयं ये सुक्रतवः शुचयो धियन्धा देवा उभयानि हव्या स्वदन्त्येषां यज्ञैर्नराशंसस्य यजतस्य व्यवहारस्य महिमानमुप स्तोषाम, तथा यूयमपि कुरुत ॥२७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये स्वयं शुद्धाः प्राज्ञा वेदशास्त्रविदो न भवन्ति, तेऽन्यानपि विदुषः पवित्रान् कर्त्तुं न शक्नुवन्ति। येषां यादृशानि कर्माणि स्युस्तानि धर्मात्मभिर्यथावत् प्रशंसितव्यानि ॥२७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक स्वतः पवित्र, बुद्धिमान, वेदशास्रवेत्ता नसतात ते इतरांना विद्वान व पवित्र करू शकत नाहीत. त्यामुळे ज्यांचे उत्तम गुण, कर्म असतात त्यांची धर्मात्मा लोकांनी प्रशंसा केली पाहिजे.