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अ॒ग्निम॒द्य होता॑रमवृणीता॒यं यज॑मानः॒ पच॒न् पक्तीः॒ पच॑न् पुरो॒डाशं॑ ब॒ध्नन्निन्द्रा॑य वयो॒धसे॒ छाग॑म्। सू॒प॒स्थाऽअ॒द्य दे॒वो वन॒स्पति॑रभव॒दिन्द्रा॑य वयो॒धसे॒ छागे॑न। अघ॒त्तं मे॑द॒स्तः प्रति॑पच॒ताऽग्र॑भी॒दवी॑वृधत् पुरो॒डशे॑न। त्वाम॒द्यऽऋ॑षे ॥४६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। अ॒द्य। होता॑रम्। अ॒वृ॒णी॒त॒। अ॒यम्। यज॑मानः। पच॑न्। पक्तीः॑। पच॑न्। पु॒रो॒डाश॑म्। ब॒ध्नन्। इन्द्रा॑य। व॒यो॒धस॒ इति॑ वयः॒ऽधसे॑। छाग॑म्। सू॒प॒स्था इति॑ सुऽउप॒स्था। अ॒द्य। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। अ॒भ॒व॒त्। इन्द्रा॑य। व॒यो॒धस॒ इति॑ वयः॒ऽधसे॑। छागे॑न। अ॒घ॒त्तम्। मे॒द॒स्तः। प्रति॑। प॒च॒ता। अग्र॑भीत्। अवी॑वृधत्। पु॒रो॒डाशे॑न। त्वाम्। अ॒द्य। ऋ॒षे॒ ॥४६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:46


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ऋषे) मन्त्रार्थ जाननेवाले विद्वान् पुरुष ! जैसे (अयम्) यह (यजमानः) यज्ञ करने हारा (अद्य) इस समय (पक्तीः) नाना प्रकार के पाकों को (पचन्) पकाता और (पुरोडाशम्) यज्ञ में होमने के पदार्थ को (पचन्) पकाता हुआ (अग्निम्) तेजस्वी (होतारम्) होता को (अद्य) आज (अवृणीत) स्वीकार करे, वैसे (वयोधसे) सब के जीवन को बढ़ाने हारे (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य के लिए (छागम्) छेदन करनेवाले बकरी आदि पशु को (बध्नन्) बाँधते हुए स्वीकार कीजिए, जैसे (अद्य) आज (वनस्पतिः) वनों का रक्षक (देवः) विद्वान् (वयोधसे) अवस्थावर्धक (इन्द्राय) शत्रुविनाशक राजा के लिए (छागेन) छेदन के साथ उद्यत (अभवत्) होवे, वैसे सब लोग (सूपस्थाः) सुन्दर प्रकार समीप रहनेवाले हों, वैसे (पचता) पकाये हुए (पुरोडाशेन) यज्ञपाक से (मेदस्तः) चिकनाई से (त्वाम्) आपको (प्रति, अग्रभीत्) ग्रहण करे और (अवीवृधत्) बढ़े, वैसे हे यजमान और होता लोगो ! तुम दोनों यज्ञ के शेष भाग को (अघत्तम्) खाओ ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रसोइये लोग उत्तम अन्न व्यञ्जनों को बना के भोजन करावें, वैसे ही भोक्ता लोग उनका मान्य करें। जैसे बकरी आदि पशु घास आदि को खाके सम्यक् पचा लेते हैं, वैसे ही भोजन किए हुए अन्नादि को पचाया करें ॥४६ ॥ इस अध्याय में होता के गुणों, वाणी और अश्वियों के गुणों, फिर भी होता के कर्तव्य, यज्ञ की व्याख्या और विद्वानों की प्रशंसा को कहा है, इससे इस अध्याय के अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ संगति है, ऐसा जानना चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्येऽष्टाविंशोऽध्यायः पूर्तिं प्रापत् ॥४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अग्निम्) तेजस्विनम् (अद्य) इदानीम् (होतारम्) (अवृणीत) वृणुयात् (अयम्) (यजमानः) यज्ञकर्त्ता (पचन्) (पक्तीः) नानाविधान् पाकान् (पचन्) (पुरोडाशम्) (बध्नन्) (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (वयोधसे) सर्वेषां जीवनवर्धकाय (छागम्) छेदकम् (सूपस्थाः) ये सूपतिष्ठन्ति ते (अद्य) (देवः) विद्वान् (वनस्पतिः) वनानां पालकः (अभवत्) भवेत् (इन्द्राय) शत्रुविनाशकाय (वयोधसे) (छागेन) छेदनेन (अघत्तम्) भुञ्जीयाताम् (मेदस्तः) स्निग्धात् (प्रति) (पचता) परिपक्वभावं प्राप्तेन (अग्रभीत्) गृह्णीयात् (अवीवृधत्) वर्धेत (पुरोडाशेन) (त्वाम्) (अद्य) (ऋषे) मन्त्रार्थवित् ॥४६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ऋषे यथाऽयं यजमानोऽद्य पक्तीः पचन् पुरोडाशं पचन्नग्निं होतारमद्यावृणीत तथा वयोधस इन्द्राय छागं बध्नन् वृणुहि। यथाऽद्य वनस्पतिर्देवो वयोधस इन्द्राय छागेनोद्यतोऽभवत्, तथा सूपस्था भवन्तु। यथा पचता पुरोडाशेन मेदस्तस्त्वां प्रत्यग्रभीदवीवृधत् तथा हे यजमानहोतारौ ! युवां पुरोडाशमघत्तम् ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूदा उत्तमान्यन्नानि व्यञ्जनानि च पक्त्वा भोजयेयुस्तथैतान् भोक्तारो विद्वांसो मानयेयुः। यथाऽजादयः पशवो घासादिकं भुक्त्वा सम्यक् पचन्ति, तथैव भुक्तमन्नं पाचयेयुरिति ॥४६ ॥ अत्र होतृगुणवर्णनं वागश्विगुणप्रतिपादनं पुनर्होतृकृत्यप्रतिपादनं यज्ञवर्णनं विद्वत्प्रशंसा चोक्ताऽत एतदर्थस्य पूर्वाऽध्यायार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. चांगले स्वयंपाकी उत्तम पदार्थांपासून उत्तम भोजन तयार करतात ते भोजन खावे. जसे शेळी इत्यादी पशू गवत वगैरे खाऊन संपूर्णपणे पचवितात, तसेच भोजन केलेल्या अन्नाचे पचन झाले पाहिजे.