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दे॒वो वन॒स्पति॑र्दे॒वमिन्द्रं॑ वयो॒धसं॑ दे॒वो दे॒वम॑वर्धयत्। द्विप॑दा॒ छन्द॑सेन्द्रि॒यं भग॒मिन्द्रे॒ वयो॒ दध॑द् वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑ ॥४३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। दे॒वः। दे॒वम्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। द्विप॒देति॒ द्विऽप॑दा। छन्द॑सा। इ॒न्द्रि॒यम्। भग॑म्। इन्द्रे॑। वयः॑। दध॑त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥४३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:43


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (वनस्पतिः) वनों का रक्षक वट आदि (देवः) उत्तम गुणोंवाला (वयोधसम्) अधिक उमरवाले (देवम्) उत्तम गुणयुक्त (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को जैसे (देवः) उत्तम सभ्यजन (देवम्) उत्तम स्वभाववाले विद्वान् को वैसे (अवर्धयत्) बढ़ावे (द्विपदा) दो पादवाले (छन्दसा) छन्द से (इन्द्रे) आत्मा में (भगम्) ऐश्वर्य तथा (इन्द्रियम्) धन को (वेतु) प्राप्त हो, वैसे (वसुधेयस्य) धनकोष के (वसुवने) धन को देनेहारे के लिए (वयः) अभीष्ट सुख को (दधत्) धारण करता हुआ तू (यज) यज्ञ कर ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् मनुष्यो ! तुम को जैसे वनस्पति पुष्कल जल को नीचे पृथिवी से आकर्षण करके वायु और मेघमण्डल में फैला के सब घास आदि की रक्षा करते और जैसे राजपुरुष राजपुरुषों की रक्षा करते हैं, वैसे वर्त्त के ऐश्वर्य की उन्नति करनी चाहिए ॥४३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवः) दिव्यगुणः (वनस्पतिः) वनानां पालको वटादिः (देवम्) दिव्यगुणम् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यम् (वयोधसम्) आयुर्धारकम् (देवः) दिव्यः सभ्यः (देवम्) दिव्यस्वभावं विद्वांसम् (अवर्धयत्) (द्विपदा) (छन्दसा) (इन्द्रियम्) धनम् (भगम्) ऐश्वर्यम् (इन्द्रे) (वयः) कमनीयं सुखम् (दधत्) (वसुवने) (वसुधेयस्य) (वेतु) (यज) ॥४३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा वनस्पतिर्देवो वयोधसं देवमिन्द्रं देवो देवमिवावर्द्धयत्। द्विपदा छन्दसेन्द्रे भगमिन्द्रियं वेतु तथा वसुधेयस्य वसुवने वयो दधत् सन् यज ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वांसो मनुष्या युष्माभिर्यथा वनस्पतयः पुष्कलं जलमधस्तादाकृष्य वायौ मेघमण्डले च प्रसार्य सर्वानुद्भिज्जो रक्षन्ति, यथा च राजपुरुषा राजपुरुषानवन्ति, तथा वर्त्तित्वैश्वर्यमुन्नेयम् ॥४३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वान माणसांनो ! वनस्पती जशी जमिनीतून जल ओढून वायू व मेघमंडळात प्रसृत करून तृण इत्यादींचे रक्षण करते आणि राजपुरुष उत्तम स्वभावाच्या विद्वानांचे रक्षण करतात तसे वागून तुम्ही ऐश्वर्य वाढवा.