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होता॑ यक्षद् ब॒र्हिषीन्द्रं॑ निषद्व॒रं वृ॑ष॒भं नर्या॑पसम्। वसु॑भी रु॒द्रैरा॑दि॒त्यैः स॒युग्भि॑र्ब॒र्हिरास॑दद् वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। ब॒र्हिषि॑। इन्द्र॑म्। नि॒ष॒द्व॒रम्। नि॒स॒द्व॒रमिति॑ निसत्ऽव॒रम्। वृ॒ष॒भम्। नर्या॑पस॒मिति॒ नर्य॑ऽअपसम्। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। रु॒द्रैः। आ॒दि॒त्यैः। स॒युग्भि॒रिति॑ स॒युक्ऽभिः॑। ब॒र्हिः। आ। अ॒स॒द॒त्। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) उत्तम दान के दाता पुरुष ! (होता) सुख चाहनेवाला पुरुष जैसे (सयुग्भिः) एक साथ योग करनेवाले (वसुभिः) प्रथम कक्षा के (रुद्रैः) मध्यम कक्षा के और (आदित्यैः) उत्तम कक्षा के विद्वानों के साथ (बर्हिषि) उत्तम विद्वानों की सभा में (निषद्वरम्) जिस के निकट श्रेष्ठ जन बैठें, उस (वृषभम्) सब से उत्तम बली (नर्यापसम्) मनुष्यों के उत्तम कामों का सेवन करने हारे (इन्द्रम्) नीति से शोभित राजा को (यक्षत्) प्राप्त होवे, (आज्यस्य) करने योग्य न्याय की (बर्हिः) उत्तम सभा में (आ, असदत्) स्थित होवे और (वेतु) सुख को प्राप्त होवे, वैसे (यज) प्राप्त हूजिये ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पृथिवी आदि लोक, प्राण आदि वायु तथा काल के अवयव महीने सब साथ वर्त्तमान हैं, वैसे जो राजा और प्रजा के जन आपस में अनुकूल वर्त्त के सभा से प्रजा का पालन करें, वे उत्तम प्रशंसा को पाते हैं ॥४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) (यक्षत्) (बर्हिषि) उत्तमायां विद्वत्सभायाम् (इन्द्रम्) नीत्या सुशोभमानम् (निषद्वरम्) निषीदन्ति वराः श्रेष्ठा मनुष्या यस्य समीपे तम् (वृषभम्) सर्वोत्कृष्टं बलिष्ठम् (नर्यापसम्) नृषु साधून्यपांसि कर्माणि यस्य तम् (वसुभिः) प्रथमकल्पैः (रुद्रैः) मध्यकक्षास्थैः (आदित्यैः) उत्तमकल्पैश्च विद्वद्भिः (सयुग्भिः) ये युञ्जन्ते तैः (बर्हिः) उत्तमां सभाम् (आसदत्) आसीदति (वेतु) प्राप्नोतु (आज्यस्य) कर्त्तव्यस्य न्यायस्य (होतः) (यज) ॥४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्होता यथा सयुग्भिर्वसुभी रुद्रैरादित्यैः सह बर्हिषि निषद्वरं वृषभं नर्यापसमिन्द्रं यक्षदाज्यस्य बर्हिरासदत् सुखं वेतु तथा यज ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पृथिव्यादयो लोकाः, प्राणादयो वायवः, कालावयवाः मासाः सह वर्त्तन्ते, तथा ये राजप्रजाजनाः परम्परानुकूल्ये वर्त्तित्वा सभया प्रजापालनं कुर्युस्ते श्रेष्ठां प्रशंसां प्राप्नुवन्ति ॥४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे पृथ्वी व प्राणवायू, काळाचे अवयव महिने इत्यादी सर्व एकत्र असतात, तसेच राजा व प्रजा यांनी आपापसात मिळून मिसळून अनुकूल वर्तन करावे व सभेद्वारे प्रजेचे पालन करावे म्हणजे अशा लोकांची प्रशंसा होते.