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दे॒वीऽऊ॒र्जाहु॑ती॒ दुघे॑ सु॒दुघे॒ पय॒सेन्द्रं॑ वयो॒धसं॑ दे॒वी दे॒वम॑वर्धताम्। प॒ङ्क्त्या छन्द॑सेन्द्रि॒यꣳ शु॒क्रमिन्द्रे॒ वयो॒ दध॑द् वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑ ॥३९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वीऽइति॑ दे॒वी। ऊ॒र्जाहु॑ती॒ इत्यू॒र्जाऽआ॑हुती। दुघे॒ऽइति॒ दुघे॑। सु॒दुघे॒ इति॑ सु॒ऽदुघे॑। पय॑सा। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। दे॒वीऽइति॑ दे॒वी। दे॒वम्। अ॒व॒र्ध॒ता॒म्। प॒ङ्क्त्या। छन्द॑सा। इ॒न्द्रि॒यम्। शु॒क्रम्। इन्द्रे॑। वयः॑। दध॑त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥३९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:39


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन पुरुष ! जैसे (दुघे) पदार्थों को पूर्ण करने और (सुदुघे) सुन्दर प्रकार कामनाओं को पूर्ण करने हारी (देवी) सुगन्धि को देनेवाली (ऊर्जाहुती) अच्छे संस्कार किये हुए अन्न की दो आहुती (पयसा) जल की वर्षा से (वयोधसम्) प्राणधारी (इन्द्रम्) जीव को जैसे (देवी) पतिव्रता विदुषी स्त्री (देवम्) व्यभिचारादि दोषरहित पति को बढ़ाती है, वैसे (अवर्धताम्) बढ़ावें (पङ्क्त्या, छन्दसा) पङ्क्ति छन्द से (इन्द्रे) जीवात्मा के निमित्त (शुक्रम्) पराक्रम और (इन्द्रियम्) धन को (वीताम्) प्राप्त करें, वैसे (वसुधेयस्य) धन के कोष के (वसुवने) धन का सेवन करने हारे के लिए (वयः) सुन्दर ग्राह्य सुख को (दधत्) धारण करते हुए (यज) यज्ञ कीजिए ॥३९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे अग्नि में छोड़ी हुई आहुति मेघमण्डल को प्राप्त हो फिर आकर शुद्ध किये हुए जल से सब जगत् को पुष्ट करती है, वैसे विद्या के ग्रहण और दान से सब को पुष्ट किया करो ॥३९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(देवी) दात्र्यौ (ऊर्जाहुती) सुसंस्कृतान्नाहुती (दुघे) पूरिके (सुदुघे) सुष्ठुकामप्रपूरिके (पयसा) जलवर्षणेन (इन्द्रम्) जीवम् (वयोधसम्) प्राणधारिणम् (देवी) पतिव्रता विदुषी स्त्री (देवम्) स्त्रीव्रतं विद्वांसम् (अवर्धताम्) (पङ्क्त्या) (छन्दसा) (इन्द्रियम्) धनम् (शुक्रम्) वीर्यम् (इन्द्रे) जीवे (वयः) कमनीयं सुखम् (दधत्) (वसुवने) धनसेविने (वसुधेयस्य) (वीताम्) (यज) ॥३९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा दुघे सुदुघे देवी ऊर्जाहुती पयसा वयोधसमिन्द्रं देवी देवमिवावर्धतां पङ्क्त्या छन्दसा इन्द्रे शुक्रमिन्द्रियं वीतां तथा वसुधेयस्य वसुवने वयो दधत् सन् यज ॥३९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथाऽग्नौ प्रास्ताऽऽहुतिर्मेघमण्डलं प्राप्य पुनरागत्य च शुद्धेन जलेन सर्वं जगत् पुष्णाति, तथा विद्याग्रहणदानाभ्यां सर्वं पोषयत ॥३९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशी अग्नीत सोडलेली आहुती मेघांना प्राप्त होते व शुद्ध जलाने सर्व जगाला पुष्ट करते तसे विद्येचा अंगीकार व दान केल्याने सर्वांना पुष्ट करता येते.