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होता॑ यक्षत्सु॒पेश॑सा सुशि॒ल्पे बृ॑ह॒तीऽउ॒भे नक्तो॒षासा॒ न द॑र्श॒ते विश्व॒मिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्। त्रि॒ष्टुभं॒ छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं प॑ष्ठ॒वाहं॒ गां वयो॒ दध॑द् वी॒तामाज्य॑स्य होत॒र्यज॑ ॥२९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। सु॒शि॒ल्पे इति॑ सुऽशि॒ल्पे। बृ॒ह॒तीऽइति॑ बृह॒ती। उ॒भेऽइत्यु॒भे। नक्तो॒षासा॑। नक्तो॒षसेति॒ नक्तो॒षसा॑। न। द॒र्श॒तेऽइति॑ दर्श॒ते। विश्व॑म्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। त्रि॒ष्टुभ॑म्। त्रि॒स्तुभ॒मिति॑ त्रि॒ऽस्तुभ॑म्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। प॒ष्ठ॒वाह॒मिति॑ पष्ठ॒ऽवाह॑म्। गाम्। वयः॑। दध॑त्। वी॒ताम्। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥२९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) यज्ञ करनेहारे पुरुष ! तू जैसे (इह) इस जगत् में (बृहती) बढ़े (उभे) दोनों (सुशिल्पे) सुन्दर शिल्पकार्य जिन में हों वे (दर्शते) देखने योग्य (नक्तोषासा) रात्रि, दिन के (न) समान (सुपेशसा) सुन्दर रूपवाले अध्यापक, उपदेशक दो विद्वान् (विश्वम्) सब (वयोधसम्) कामना के आधार (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य (त्रिष्टुभम्) त्रिष्टुप् छन्द का अर्थ (छन्दः) बल (वयः) अवस्था (इन्द्रियम्) श्रोत्रादि इन्द्रिय और (पष्ठवाहम्) पीठ पर भार ले चलनेवाले (गाम्) बैल को (वीताम्) प्राप्त हों, जैसे (आज्यस्य) प्राप्त होने योग्य घृतादि पदार्थ के सम्बन्धी इन को (दधत्) धारण करता हुआ (होता) ग्रहणकर्ता पुरुष (यक्षत्) प्राप्त होवे, वैसे (यज) यज्ञ कीजिए ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सम्पूर्ण ऐश्वर्य करनेहारे शिल्पकार्यों को इस जगत् में सिद्ध करते हैं, वे सुखी होते हैं ॥२९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) आदाता (यक्षत्) (सुपेशसा) सुन्दरस्वरूपवन्तौ विद्वांसावध्यापकौ (सुशिल्पे) सुन्दराणि शिल्पानि ययोस्ते (बृहती) महत्यौ (उभे) द्वे (नक्तोषासा) रात्रिदिने (न) इव (दर्शते) द्रष्टव्ये (विश्वम्) सर्वम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (वयोधसम्) कामनाधारकम् (त्रिष्टुभम्) एतच्छन्दोऽर्थम् (छन्दः) बलम् (इह) अस्मिञ्जगति (इन्द्रियम्) (पष्ठवाहम्) यः पष्ठेन पृष्ठेन वहति तम् (गाम्) वृषम् (वयः) (दधत्) (वीताम्) प्राप्नुताम् (आज्यस्य) प्राप्तुं योग्यस्य घृतादिपदार्थस्य सम्बन्धिनम् (होतः) (यज) ॥२९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतस्त्वं यथेह बृहत्युभे सुशिल्पे दर्शते नक्तोषासा न सुपेशसा विश्वं वयोधसमिन्द्रं त्रिष्टुभं छन्दो वय इन्द्रियं पष्ठवाहं गां न वीतां यथाऽऽज्यस्यैतानि दधत् सन् होता यक्षत् तथा यज ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये सकलैश्वर्यकराणि शिल्पकर्माणीह साध्नुवन्ति ते सुखिनो जायन्ते ॥२९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे या जगात (शिल्पकार्य) हस्तकौशल्ययुक्त कामे करून संपूर्ण ऐश्वर्य निर्माण करतात ती सुखी होतात.