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अ॒ग्निम॒द्य होता॑रमवृणीता॒यं यज॑मानः॒ पच॒न् पक्तीः॒ पच॑न् पुरो॒डाशं॑ ब॒ध्नन्निन्द्रा॑य॒ च्छाग॑म्। सू॒प॒स्थाऽ अ॒द्य दे॒वो वन॒स्पति॑रभव॒दिन्द्रा॑य॒ च्छागे॑न। अद्य॒त्तं मे॑द॒स्तः प्रति॑ पच॒ताग्र॑भी॒दवी॑वृधत् पुरो॒डाशे॑न त्वाम॒द्य ऋ॑षे ॥२३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। अ॒द्य। होता॑रम्। अ॒वृ॒णी॒त॒। अ॒यम्। यज॑मानः। पच॑न्। पक्तीः॑। पच॑न्। पु॒रोडाश॑म्। ब॒ध्नन्। इन्द्रा॑य। छाग॑म्। सू॒प॒स्था इति॑ सुऽउप॒स्थाः। अ॒द्य। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। अ॒भ॒व॒त्। इन्द्रा॑य। छागे॑न। अद्य॑त्। तम्। मे॒द॒स्तः। प्रति॑। प॒च॒ता। अग्र॑भीत्। अवी॑वृधत्। पु॒रो॒डाशे॑न। त्वाम्। अ॒द्य। ऋ॒षे॒ ॥२३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:23


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ऋषे) मन्त्रार्थ जानने हारे विद्वन् ! जैसे (अयम्) यह (यजमानः) यज्ञ करने हारा पुरुष (अद्य) आज (इन्द्राय) ऐश्वर्य प्राप्ति के अर्थ (पक्तीः) पाकों को (पचन्) पकाता (पुरोडाशम्) होम के लिए पाक विशेष को (पचन्) पकाता और (छागम्) रोगों को नष्ट करने हारी बकरी को (बध्नन्) बाँधता हुआ (होतारम्) यज्ञ करने में कुशल (अग्निम्) तेजस्वी विद्वान् को (अवृणीत) स्वीकार करे। जैसे (वनस्पतिः) किरणसमूह का रक्षक (देवः) प्रकाशयुक्त सूर्यमण्डल (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिए (छागेन) छेदन करने के साथ (अद्य) इस समय (अभवत्) प्रसिद्ध होवे (मेदस्तः) चिकनाई वा गीलेपन से (तम्) उस हुत पदार्थ को (अद्यत्) खाता (पचता) सब पदार्थों को पकाते हुए सूर्य से (सूपस्थाः) सुन्दर उपस्थान करनेवाले हों, वैसे (प्रति, अग्रभीत्) ग्रहण करता है, (पुरोडाशेन) होम के लिए पकाये पदार्थ विशेष से (अवीवृधत्) अधिक वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे (त्वाम्) आप को (अद्य) मैं बढ़ाऊँ और आप भी वैसे ही वर्त्ताव कीजिए ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रसोइये लोग साग आदि को काट-कूट के अन्न और कढ़ी आदि पकाते हैं, वैसे सूर्य सब पदार्थों को पकाता है। जैसे सूर्य वर्षा के द्वारा सब पदार्थों को बढ़ाता है, वैसे सब मनुष्यों को चाहिए कि सेवादि के द्वारा मन्त्रार्थ देखनेवाले विद्वानों को बढ़ावें ॥२३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अग्निम्) विद्वांसम् (अद्य) इदानीम् (होतारम्) (अवृणीत) वृणुयात् (अयम्) (यजमानः) (पचन्) (पक्तीः) पाकान् (पचन्) (पुरोडाशम्) पाकविशेषम् (बध्नन्) बद्धं कुर्वन् (इन्द्राय) ऐश्वर्याय (छागम्) छ्यति छिनत्ति रोगान् येन तम् (सूपस्थाः) ये सूपतिष्ठन्ति ते (अद्य) (देवः) (वनस्पतिः) वनस्य किरणसमूहस्य पालकः सूर्यः (अभवत्) भवेत् (इन्द्राय) ऐश्वर्याय (छागेन) छेदनेन (अद्यत्) अत्ति (तम्) (मेदस्तः) मेदसः स्निग्धात् (प्रति) (पचता) (अग्रभीत्) गृह्णाति (अवीवृधत्) (पुरोडाशेन) (त्वाम्) (अद्य) (ऋषे) मन्त्रार्थवित् ॥२३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ऋषे विद्वन् ! यथाऽयं यजमानोऽद्येन्द्राय पक्तीः पचन् पुरोडाशं पचञ्छागं बध्नन्नग्निं होतारमवृणीत। यथा वनस्पतिर्देव इन्द्राय छागेनाद्याभवन्मेदस्तस्तमद्यत् पचता सूपस्थाः स्युस्तथा प्रत्यग्रभीत् पुरोडाशेनावीवृधत् तथा त्वामद्याऽहं वर्द्धयेयं त्वं च तथा वर्त्तस्व ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पाककर्त्तारश्शाकादीनि छित्त्वा भित्त्वाऽन्नव्यञ्जनानि पचन्ति तथा सूर्यः सर्वान् पचति। यथा सूर्यो वृष्टिद्वारा सर्वान् वर्द्धयति तथा सेवादिद्वारा मन्त्रार्थद्रष्टारो विद्वांसः सर्वैर्वर्द्धनीयाः ॥२३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा स्वयंपाकी भाजी, अन्न, कढी इत्यादी पदार्थ तयार करतो, तसा सूर्यही सर्व पदार्थांना पक्व करतो. जसा सूर्य वृष्टीद्वारे सर्व पदार्थांची वृद्धी करतो तशी सर्व माणसांनी विद्वानांची सेवा करावी व मंत्राचे अर्थ जाणणाऱ्या विद्वानांना प्रोत्साहित करावे.