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दे॒वीऽऊ॒र्जाहु॑ती॒ दुघे॑ सु॒दुघे॒ पय॒सेन्द्र॑मवर्द्धताम्। इष॒मूर्ज॑म॒न्या व॑क्ष॒त्सग्धि॒ꣳ सपी॑तिम॒न्या नवे॑न॒ पूर्वं॒ दय॑माने पुरा॒णेन॒ नव॒मधा॑ता॒मूर्ज॑मू॒र्जा॑हुतीऽ ऊ॒र्जय॑माने॒ वसु॒ वार्या॑णि॒ यज॑मानाय शिक्षि॒ते व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑ ॥१६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वीऽइति॑ दे॒वी। ऊ॒र्जाहु॑ती॒ इत्यू॒र्जाऽआ॑हुती। दुघे॑। सु॒दुघे॒ इति॑ सु॒ऽदुघे॑। पय॑सा। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्द्ध॒ता॒म्। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। अ॒न्या। व॒क्ष॒त्। सग्धि॑म्। सपी॑ति॒मिति॒ सऽपी॑तिम्। अ॒न्या। नवे॑न। पूर्व॑म्। दय॑माने॒ इति॒ दय॑माने। पु॒रा॒णेन॑। नव॑म्। अधा॑ताम्। ऊर्ज॑म्। ऊ॒र्जाहु॑ती॒ इत्यू॒र्जाऽआ॑हुती। ऊ॒र्जय॑मानेऽइत्यू॒र्जय॑माने। वसु॑। वार्या॑णि। यज॑मानाय। शि॒क्षि॒तेऽइति॑ शिक्षि॒ते। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (वसुधेयस्य) ऐश्वर्य धारण करने योग्य ईश्वर के (वसुवने) धन दान के स्थान जगत् में वर्त्तमान विद्वानों ने (वार्याणि) ग्रहण करने योग्य (वसु) धन की (शिक्षिते) जिन में शिक्षा की जावे, वे रात-दिन (यजमानाय) सङ्गति के लिए प्रवृत्त हुए जीव के लिए व्यवहार को (वीताम्) व्याप्त हों, वैसे (ऊर्जाहुती) बल तथा प्राण को धारण करने और (देवी) उत्तम गुणों को प्राप्त करनेवाले दिन रात (पयसा) जल से (दुघे) सुखों को पूर्ण और (सुदुघे) सुन्दर कामनाओं के बढ़ानेवाले होते हुए (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (अवर्धताम्) बढ़ाते हैं उन में से (अन्या) एक (इषम्) अन्न और (ऊर्जम्) बल को (वक्षत्) पहुँचाती और (अन्या) दिनरूप वेला (सपीतिम्) पीने के सहित (सग्धिम्) ठीक समान भोजन को पहुँचाती है, (दयमाने) आवागमन गुणवाली अगली पिछली दो रात्रि प्रवृत्त हुई (नवेन) नये पदार्थ के साथ (पूर्वम्) प्राचीन और (पुराणेन) पुराणे के साथ (नवम्) नवीन स्वरूप वस्तु को (अधाताम्) धारण करे, (ऊर्जयमाने) बल करते हुए (ऊर्जाहुती) अवस्था घटाने से बल को लेने हारे दिन-रात (ऊर्जम्) जीवन को धारण करें, वैसे आप (यज) यज्ञ कीजिए ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे रात-दिन अपने वर्त्तमान रूप से पूर्वापररूप को जताने तथा आहार-विहार को प्राप्त करनेवाले होते हैं, वैसे अग्नि में होमी हुई आहुतीं सब सुखों को पूर्ण करनेवाली होती हैं। जो मनुष्य काल की सूक्ष्म वेला को भी व्यर्थ गमायें, वायु आदि पदार्थों को शुद्ध न करें, अदृष्ट पदार्थ को अनुमान से न जानें तो सुख को भी न प्राप्त हों ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवी) दिव्यगुणप्रापिके (ऊर्जाहुती) बलप्राणधारिके (दुघे) सुखानां प्रपूरिके (सुदुघे) सुष्ठु कामवर्द्धिके (पयसा) जलेन (इन्द्रम्) ऐश्वर्यम् (अवर्द्धताम्) वर्द्धयतः (इषम्) अन्नम् (ऊर्जम्) बलम् (अन्या) रात्रिः (वक्षत्) प्रापयति (सग्धिम्) समानं भोजनम् (सपीतिम्) पानेन सह वर्त्तमानम् (अन्या) दिनाख्या (नवेन) नवीनेन (पूर्वम्) (दयमाने) रात्र्यौ (पुराणेन) प्राचीनेन स्वरूपेण (नवम्) नवीनं स्वरूपम् (अधाताम्) दध्याताम् (ऊर्जम्) प्राणनम् (ऊर्जाहुती) बलस्यादात्र्यौ (ऊर्जयमाने) बलं कुर्वाणे (वसु) धनम् (वार्याणि) वरितुमर्हाणि कर्माणि (यजमानाय) सङ्गत्यै प्रवर्त्तमानाय जीवाय (शिक्षिते) विद्वद्भिरुपदिष्टे (वसुवने) धनदानाधिकरणे (वसुधेयस्य) वस्वैश्वर्यं धेयं यत्र तस्येश्वरस्य (वीताम्) व्याप्नुताम् (यज) सङ्गच्छस्व ॥१६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् यथा वसुधेयस्य वसुवने वर्त्तमाने विद्वद्भिर्वसु वार्याणि शिक्षिते रात्रिदिने यजमानाय व्यवहारं वीतां तथोर्जाहुती देवी पयसा दुघे सुदुघे सत्याविन्द्रमवर्द्धतां तयोरन्या इषमूर्जं वक्षदन्या सपीतिं सग्धिं वक्षद् दयमाने सत्यौ नवेन पूर्वं पुराणेन नवमधातामूर्जयमाने ऊर्जाहुती ऊर्जमधातां तथा यज ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा रात्रिदिने वर्त्तमानस्वरूपेण पूर्वापरस्वरूपज्ञापिके आहारविहारप्रापिके वर्त्तेते तथाऽग्नौ हुता आहुतयः सर्वसुखप्रपूरिका जायन्ते। यदि मनुष्याः कालस्य सूक्ष्मामपि वेलां व्यर्थां नयेयुर्वाय्वादिपदार्थान्न शोधयेयुरदृष्टमनुमानेन न विद्युस्तर्हि सुखमपि नाप्नुयुः ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे दिवस व रात्र यांच्यामुळे पुढच्या व मागच्या सर्व गोष्टी कळतात आणि आहार व विहारासंबंधी ही ज्ञान प्राप्त होते तसे अग्नीत टाकलेल्या आहुतीमुळे सर्व सुख प्राप्त होते. जी माणसे काळाच्या सूक्ष्म क्षणाचा विचार न करता व्यर्थ वेळ घालवितात. वायू वगैरे पदार्थ शुद्ध करत नाहीत त्यांना अदृश्य पदार्थ अनुमानाने जाणता येत नाहीत व त्यामुळे सुखही प्राप्त होत नाही.