वांछित मन्त्र चुनें

दे॒वी जोष्ट्री॒ वसु॑धिती दे॒वमिन्द्र॑मवर्धताम्। अया॑व्य॒न्याघा द्वेषा॒स्यान्या व॑क्ष॒द्वसु॒ वार्या॑णि॒ यज॑मानाय शिक्षि॒ते व॑सु॒वने॑ व॑सु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑ ॥१५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वी इति॑ दे॒वी। जोष्ट्री॒ इति॒ जोष्ट्री॑। वसु॑धिती॒ इति॒ वसु॑ऽधिती। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒ता॒म्। अया॑वि। अ॒न्या। अ॒घा। द्वेषा॑सि। आ। अ॒न्या। व॒क्ष॒त्। वसु॑। वार्या॑णि। यज॑मानाय। शि॒क्षि॒त इति॑ शिक्षि॒ते। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:15


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (वसुधिती) द्रव्य को धारण करनेवाले (जोष्ट्री) सब पदार्थों को सेवन करते हुए (देवी) प्रकाशमान दिन-रात (देवम्) प्रकाशस्वरूप (इन्द्रम्) सूर्य को (अवर्द्धताम्) बढ़ाते हैं, उन दिन-रात के बीच (अन्या) एक (अघा) अन्धकाररूप रात्रि (द्वेषांसि) द्वेषयुक्त जन्तुओं को (आ, अयावि) अच्छे प्रकार पृथक् करती और (अन्या) उन दोनों में से एक प्रातःकाल उषा (वसु) धन तथा (वार्याणि) उत्तम जलों को (वक्षत्) प्राप्त करे (यजमानाय) पुरुषार्थी मनुष्य के लिए (वसुधेयस्य) आकाश के बीच (वसुवने) जिस में पृथिवी आदि का विभाग हो, ऐसे जगत् में (शिक्षिते) जिन में मनुष्यों ने शिक्षा की ऐसे हुए दिन रात (वीताम्) व्याप्त होवें (यज) यज्ञ कीजिए ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे रात-दिन विभाग को प्राप्त हुए मनुष्यादि प्राणियों के सब व्यवहार को बढ़ाते हैं, उन में से रात्रि प्राणियों को सुलाकर द्वेष आदि को निवृत्त करती और दिन उन द्वेषादि को प्राप्त और सब व्यवहारों को प्रकट करता है, वैसे प्रातःकाल में योगाभ्यास से रागादि दोषों को निवृत्त और शान्ति आदि गुणों को प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त होओ ॥१५ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवी) देदीप्यमाने (जोष्ट्री) सेवमाने (वसुधिती) द्रव्यधारिके (देवम्) प्रकाशस्वरूपम् (इन्द्रम्) सूर्यम् (अवर्द्धताम्) वर्धयतः (अयावि) पृथक्कुरुतः (अन्या) भिन्ना (अघा) अन्धकाररूपा (द्वेषांसि) द्वेषयुक्तानि जन्तुजातानि (आ) (अन्या) भिन्ना प्रकाशरूपोषाः (वक्षत्) वहेत् (वसु) धनम् (वार्याणि) वारिषूदकेषु साधूनि (यजमानाय) पुरुषार्थिने (शिक्षिते) कृतशिक्षे सत्यौ (वसुवने) पृथिव्यादीनां संविभागे जगति (वसुधेयस्य) अन्तरिक्षस्य मध्ये (वीताम्) व्याप्नुताम् (यज) यज्ञं कुरु ॥१५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा वसुधिती जोष्ट्री देवी उषासानक्तेन्द्रं देवमवर्द्धतान्तयोरन्याऽघा द्वेषांस्यायाव्यन्या च वसु वार्याणि च वक्षत्। यजमानाय वसुधेयस्य वसुवने शिक्षिते वीतां तथा यज ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यूयं यथा रात्रिदिने विभक्ते सती मनुष्यादीनां सर्वे व्यवहारं वर्द्धयतस्तयो रात्रिः प्राणिनः स्वापयित्वा द्वेषादीन् निवर्त्तयति। अन्यद्दिनञ्च तान् द्वेषादीन् प्रापयति सर्वान् व्यवहारान् प्रद्योतयति च तथा योगाभ्यासेन रागादीन् निवार्य शान्त्यादीन् गुणान् प्राप्य सुखानि प्राप्नुत ॥१५ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! रात्र व दिवसामुळे माणसांचे सर्व व्यवहार पार पडतात. त्यापैकी रात्री प्राणी झोपेच्या अधीन होऊन द्वेष इत्यादीपासून दूर राहतो तर दिवसा त्याचे द्वेष वगैरे व्यवहार प्रकट होत असतात. त्यासाठी प्रातःकाळी राग द्वेष वगैरे दोष दूर करून योगाभ्यासाने शांतता वगैरे गुण प्राप्त करा व सुख भोगा.