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दे॒वीऽ उ॒षासा॒नक्तेन्द्रं॑ य॒ज्ञे प्र॑य॒त्य᳖ह्वेताम्। दैवी॒र्विशः॒ प्राया॑सिष्टा॒ सुप्री॑ते॒ सुधि॑ते वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑ ॥१४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वी इति॑ दे॒वी। उ॒षासा॒नक्ता॑। उ॒षसा॒नक्तेन्यु॒षसा॒ऽनक्ता॑। इन्द्र॑म्। य॒ज्ञे। प्र॒य॒तीति॑। प्रऽय॒ति। अ॒ह्वे॒ता॒म्। दैवीः॑। विशः॑। प्र। अ॒या॒सि॒ष्टा॒म्। सुप्री॑ते॒ इति॒ सुऽप्री॑ते। सुधि॑ते॒ इति॒ सुऽधि॑ते॒। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (सुप्रीते) सुन्दर प्रीति के हेतु (सुधिते) अच्छे हितकारी (देवी) प्रकाशमान (उषासानक्ता) रात-दिन (प्रयति) प्रयत्न के निमित्त (यज्ञे) सङ्गति के योग्य यज्ञ आदि व्यवहार में (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्त यजमान को (अह्वेताम्) शब्द व्यवहार कराते (वसुधेयस्य) जिसमें धन धारण हो, उस खजाने के (वसुवने) धन विभाग में (दैवीः) न्यायकारी विद्वानों की इन (विशः) प्रजाओं को (प्र, अयासिष्टाम्) प्राप्त होते हैं और सब जगत् को (वीताम्) प्राप्त हो, वैसे आप (यज) यज्ञ कीजिये ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे दिन-रात नियम से वर्त्तकर प्राणियों को शब्दादि व्यवहार कराते हैं, वैसे तुम लोग नियम से वर्त्तकर प्रजाओं को आनन्द दे सुखी करो ॥१४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवी) देदीप्यमाने (उषासानक्ता) रात्रिदिने (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं यजमानम् (यज्ञे) सङ्गन्तव्ये यज्ञादिव्यवहारे (प्रयति) प्रयतन्ते यस्मिंस्तत्र (अह्वेताम्) आह्वयतः (दैवीः) देवानां न्यायकारिणां विदुषामिमाः (विशः) प्रजाः (प्र) (अयासिष्टाम्) प्राप्नुतः (सुप्रीते) सुष्ठु प्रीतिर्याभ्यां ते (सुधिते) सुष्ठु हितकरे (वसुवने) धनविभागे (वसुधेयस्य) कोषस्य (वीताम्) व्याप्नुताम् (यज) ॥१४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा सुप्रीते सुधिते देवी उषासानक्ता प्रयति यज्ञ इन्द्रमह्वेतां वसुधेयस्य वसुवने दैवीर्विशः प्रायासिष्टां सर्वं जगद्वीतां व्याप्नुतां तथा यज ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथाऽहर्निशं नियमेन वर्त्तित्वा प्राणिनो व्यवहारयति तथा यूयं नियमेन वर्त्तित्वा प्रजा आनन्द्य सुखयत ॥१४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे दिवस व रात्र नियमात राहून प्राण्यांकडून शाब्दिक व्यवहार पार पाडण्यास मदत करतात तसे तुम्ही नियमात राहून प्रजेला आनंद देऊन सुखी करा.