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क्ष॒त्रेणा॑ग्ने॒ स्वायुः सꣳर॑भस्व मि॒त्रेणा॑ग्ने मित्र॒धेये॑ यतस्व। स॒जा॒तानां॑ मध्यम॒स्थाऽ ए॑धि॒ राज्ञा॑मग्ने विह॒व्यो᳖ दीदिही॒ह ॥५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क्ष॒त्रेण॑। अ॒ग्ने॒। स्वायु॒रिति॑ सु॒ऽआयुः॑। सम्। र॒भ॒स्व॒। मि॒त्रेण॑। अ॒ग्ने॒। मि॒त्र॒धेय॒ इति॑ मित्र॒ऽधेये॑। य॒त॒स्व॒ ॥ स॒जा॒ताना॒मिति॑ सऽजा॒ताना॑म्। म॒ध्य॒म॒स्था इति॑ मध्यम॒ऽस्थाः। ए॒धि॒। राज्ञा॑म्। अ॒ग्ने॒। वि॒ह॒व्य᳖ इति॑ विऽह॒व्यः᳖। दी॒दि॒हि॒। इ॒ह ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:27» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वि विद्वन् ! आप (इह) इस जगत् में वा राज्याधिकार में (क्षत्रेण) राज्य व धन के साथ (स्वायुः) सुन्दर युवाऽवस्था का (सम्, रभस्व) अच्छे प्रकार आरम्भ कीजिये। हे (अग्ने) विद्या और विनय से शोभायमान राजन् ! (मित्रेण) धर्मात्मा विद्वान् मित्रों के साथ (मित्रधेये) मित्रों से धारण करने योग्य व्यवहार में (यतस्व) प्रयत्न कीजिये। हे (अग्ने) न्याय का प्रकाश करने हारे सभापति ! (सजातानाम्) एक साथ उत्पन्न हुए बराबर की अवस्थावाले (राज्ञाम्) धर्मात्मा राजाधिराजों के बीच (मध्यमस्थाः) मध्यस्थ-वादिप्रतिवादि के साक्षि (एधि) हूजिये और (विहव्यः) विशेष कर स्तुति के योग्य हुए (दीदिहि) प्रकाशित हूजिये ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - सभापति राजा सदा ब्रह्मचर्य से दीर्घायु, सत्य धर्म में प्रीति रखनेवाले मन्त्रियों के साथ विचारकर्त्ता, अन्य राजाओं के साथ अच्छी सन्धि रखनेवाला, पक्षपात को छोड़ न्यायाधीश सब शुभ लक्षणों से युक्त हुआ दुष्ट व्यसनों से पृथक् हो के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को धीरज, शान्ति, अप्रमाद से धीरे-धीरे सिद्ध करे ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(क्षत्रेण) राज्येन धनेन वा (अग्ने) पावकवत् तेजस्विन् (स्वायुः) शोभनं च तदायुश्च (सम्) सम्यक् (रभस्व) आरम्भं कुरु (मित्रेण) धार्मिकैर्विद्वद्भिर्मित्रैः सह (अग्ने) विद्याविनयप्रकाशक (मित्रधेये) मित्रैर्धर्त्तव्ये व्यवहारे (यतस्व) (सजातानाम्) समानजन्मनाम् (मध्यमस्थाः) मध्ये भवा मध्यमा पक्षपातरहितास्तेषु तिष्ठतीति (एधि) भव (राज्ञाम्) धार्मिकाणां राजाधिराजानां मध्ये (अग्ने) न्यायप्रकाशक (विहव्यः) विशेषेण स्तोतुं योग्यः (दीदिहि) प्रकाशितो भव (इह) अस्मिन् संसारे राज्याधिकारे वा ॥५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! त्वमिह क्षत्रेण सह स्वायुः संरभस्व। हे अग्ने ! मित्रेण सह मित्रधेये यतस्व। हे अग्ने ! सजातानां राज्ञां मध्ये मध्यमस्था एधि। विहव्यः सन् दीदिहि च ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - राजा सदा ब्रह्मचर्येण दीर्घायुः सत्यधर्मप्रियैरमात्यैः सह मन्त्रयिताऽन्यैः राजभिः सह सुसन्धिः पक्षपातं विहाय न्यायाधीशः सर्वैः सुलक्षणैर्युक्तः सन् दुष्टव्यसनविरहो भूत्वा धर्मार्थकाममोक्षान् धैर्येण शान्त्याऽप्रमादेन च शनैश्शनैः साधयेत् ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजाने नेहमी ब्रह्मचर्य पालन करून दीर्घायू बनावे. सत्य धर्म प्रेमी मंत्र्याबरोबर विचारविनिमय करावा, इतर राजांबरोबर मैत्री करावी. भेदभाव न करता न्याय करावा. शुभ लक्षणांनीयुक्त व्हावे. दुष्ट व्यसनांपासून दूर राहावे. धैर्यवान, शांतीयुक्त व प्रमादरहित बनून हळुहळू धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करावे.