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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब किसके तुल्य वायु को स्वीकार करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (ऋतस्पते) सत्य के रक्षक (जामातः) जमाई के तुल्य वर्त्तमान (अद्भुत) आश्चर्यरूप कर्म करनेवाले (वायो) बहुत बलयुक्त विद्वन् ! हम लोग जो (त्वष्टुः) विद्या से प्रकाशित (तव) आप के (अवांसि) रक्षा आदि कर्मों का (आ, वृणीमहे) स्वीकार करते हैं, उन का आप भी स्वीकार करो ॥३४ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे जमाई उत्तम आश्चर्य गुणोंवाला, सत्य ईश्वर का सेवक हुआ स्वीकार के योग्य होता है, वैसे वायु भी स्वीकार करने योग्य है ॥३४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ किंवद्वायुः स्वीकर्तव्य इत्याह ॥
अन्वय:
(तव) (वायो) बहुबल (ऋतस्पते) सत्यपालक (त्वष्टुः) विद्यया प्रदीप्तस्य (जामातः) कन्यापतिवद् वर्त्तमान (अद्भुत) आश्चर्यकर्मन् (अवांसि) रक्षणादीनि (आ) (वृणीमहे) स्वीकुर्महे ॥३४ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे ऋतस्पते ! जामातरद्भुत वायो वयं यानि त्वष्टुस्तवाऽवांस्या वृणीमहे, तानि त्वमपि स्वीकुरु ॥३४ ॥
भावार्थभाषाः - यथा जामाताऽऽश्चर्यगुणाः सत्यसेवकः स्वीकर्त्तव्योऽस्ति, तथा वायुरपि वरणीयोऽस्ति ॥३४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जामात जर उत्तम आश्चर्यकारक सत्य गुणांनी युक्त असून ईश्वरसेवक असेल तर स्वीकार करण्यायोग्य असतो तसा वायूही स्वीकार करण्यायोग्य असतो.