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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (ते) वे (उषासानक्ता) रात्रि और दिन (अस्य) इस पुरुष के (योनौ) घर में (दिव्ये) उत्तम रूपवाली (योषणे) दो स्त्रियों के (न) समान वर्त्तमान (नः) हमारे जिस (इमम्) इस (अध्वरम्) विनाश न करने योग्य (यज्ञम्) यज्ञ की (अवताम्) रक्षा करें, उस को तुम लोग जानो ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विदुषी स्त्री घर के कार्यों को सिद्ध करती है, वैसे अग्नि से उत्पन्न हुए रात्रि दिन सब व्यवहार को सिद्ध करते हैं ॥१७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(ते) (अस्य) (योषणे) भार्य्ये वर्त्तमाने (दिव्ये) दिव्यस्वरूपे (न) इव (योनौ) गृहे (उषासानक्ता) रात्रिन्दिवौ (इमम्) (यज्ञम्) (अवताम्) रक्षेताम् (अध्वरम्) अहिंसनीयम् (नः) अस्माकम् ॥१७ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यास्ते उषासानक्ताऽस्य योनौ दिव्ये योषणे न नो यमिममध्वरं यज्ञमवतां तं यूयं विजानीत ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा विदुषी पत्नी गृहकृत्यानि साध्नोति, तथा वह्निना जाते रात्र्यह्नी सर्वं व्यवहारं साध्नुतः ॥१७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे विदुषी स्री गृहकृत्यदक्ष असते तसे अग्नीद्वारा उत्पन्न झालेल्या दिवस व रात्रीमुळे सर्व व्यवहार सिद्ध होतात.