वांछित मन्त्र चुनें

बृह॑स्पते॒ऽअति॒ यद॒र्योऽअर्हा॑द् द्यु॒मद्वि॒भाति॒ क्रतु॑म॒ज्जने॑षु। यद्दी॒दय॒च्छव॑सऽ ऋतप्रजात॒ तद॒स्मासु॒ द्रवि॑णं धेहि चि॒त्रम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ बृह॒स्पत॑ये त्वै॒ष ते॒ योनि॒र्बृह॒स्पत॑ये त्वा ॥३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बृह॑स्पते। अति॑। यत्। अ॒र्यः। अर्हा॑त्। द्यु॒मदिति॑ द्यु॒ऽमत्। वि॒भातीति॑ वि॒ऽभाति॑। क्रतु॑म॒दिति॒ क्रतु॑ऽमत्। जने॑षु। यत्। दी॒दय॑त्। शव॑सा। ऋ॒त॒प्र॒जा॒तेत्यृ॑तऽप्रजात। तत्। अ॒स्मासु॑। द्रवि॑णम्। धे॒हि॒। चि॒त्रम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। बृह॒स्पत॑ये। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। बृह॒स्पत॑ये। त्वा॒ ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:26» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह ईश्वर क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (बृहस्पते) बड़े बड़े प्रकृति आदि पदार्थों और जीवों के पालने हारे ईश्वर ! जो आप (उपयामगृहीतः) प्राप्त हुए यम-नियमादि योगसाधनों से जाने गये (असि) हैं, उन (त्वा) आप को (बृहस्पतये) बड़ी वेदवाणी की पालना के लिये तथा जिन (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) प्रमाण है, उन (बृहस्पतये) बड़े-बड़े आप्त विद्वानों की पालना करनेवाले के लिए (त्वा) आप को हम लोग स्वीकार करते हैं। हे भगवन् ! (ऋतप्रजात) जिन से सत्य उत्तमता से उत्पन्न हुआ वे (अर्यः) परमात्मा आप (जनेषु) मनुष्यों में (अर्हात्) योग्य काम से (यत्) जो (द्युमत्) प्रशंसित प्रकाशयुक्त मन (क्रतुमत्) वा प्रशंसित बुद्धि और कर्मयुक्त मन (अति विभाति) विशेष कर प्रकाशमान है वा (यत्) जो (शवसा) बल से (दीदयत्) प्रकाशित होता हुआ वर्त्तमान है (तत्) उस (चित्रम्) आश्चर्यरूप ज्ञान (द्रविणम्) धन और यश को (अस्मासु) हम लोगों में (धेहि) धारण-स्थापन कीजिए ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिससे बड़ा दयावान् न्यायकारी और अत्यन्त सूक्ष्म कोई भी पदार्थ नहीं वा जिसने वेद प्रकट करने द्वारा सब मनुष्य सुशोभित किये वा जिसने अद्भुत ज्ञान और धन जगत् में विस्तृत किया और जो योगाभ्यास से प्राप्त होने योग्य है, वही ईश्वर हम सब लोगों को अति उपासना करने योग्य है, यह तुम जानो ॥३ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स ईश्वरः किं करोतीत्याह ॥

अन्वय:

(बृहस्पते) बृहतां प्रकृत्यादीनां जीवानां च पालकेश्वर (अति) (यत्) (अर्यः) स्वामीश्वरः। अर्यः स्वामिवैश्ययोः [अ꠶३.१.१०३] अर्य इतीश्वरना꠶ (निघं०२.२२) (अर्हात्) योग्यात् (द्युमत्) प्रशस्तप्रकाशयुक्तं मनः (विभाति) विशेषतया प्रकाशते (क्रतुमत्) प्रशस्तप्रज्ञाकर्मयुक्तम् (जनेषु) मनुष्येषु (यत्) (दीदयत्) प्रकाशयत्सत् (शवसा) बलेन (ऋतप्रजात) ऋतं सत्यं प्रजातं यस्मात्तत्संबुद्धौ (तत्) (अस्मासु) (द्रविणम्) धनं यशश्च (धेहि) (चित्रम्) आश्चर्यम् (उपयामगृहीतः) उपगतयमैर्विदितः (असि) (बृहस्पतये) बृहत्या वाचः पालनाय (त्वा) त्वाम् (एषः) (ते) तव (योनिः) प्रमाणम् (बृहस्पतये) बृहतामाप्तानां पालकाय (त्वा) त्वाम् ॥३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे बृहस्पते ! यस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तं त्वा बृहस्पतये यस्यैष ते योनिरस्ति तस्मै बृहस्पतये त्वा वयं स्वीकुर्मः। हे ऋतप्रजातार्यस्त्वं जनेष्वर्हाद्यद् द्युमत् क्रतुमदतिविभाति यच्छवसा दीदयदस्ति तच्चित्रं विज्ञानं द्रविणं चास्मासु धेहि ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यस्मान्महान् दयालुर्न्यायकार्यणीयान् कश्चिदपि पदार्थो नास्ति येन वेदाविर्भावद्वारा सर्वे मनुष्या भूषिता येनाद्भुतं विज्ञानं धनं च विस्तारितं यो योगाभ्यासगम्योऽस्ति स एवेश्वरोऽस्माभिः सर्वैरुपासनीयतमोऽस्तीति विजानीत ॥३ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ज्याच्यासारखा मोठा दयाळू, न्यायी व अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ कोणताही नाही किंवा ज्याने वेद प्रकट करून सर्व माणसांना सुशोभित केलेले आहे व अद्भूत ज्ञान आणि धन जगात पसरविलेले आहे. जो योगाभ्यासाने प्राप्त होण्यायोग्य आहे. तोच परमेश्वर सर्वांचा उपास्यदेव आहे हे सर्वांनी जाणावे.