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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (सः) सो (मरुद्भ्यः) मनुष्यों के लिये (नः) हमारे (इन्द्राय) परमैश्वर्य को (यज्यवे) सङ्गति और (वरुणाय) श्रेष्ठ जन के लिए (वरिवोवित्) सेवाकर्म को जानते हुए आप (परि, स्रव) सब ओर से प्राप्त हुआ करो ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - जिस विद्वान् ने जितना सामर्थ्य प्राप्त किया है, उसको चाहिये कि उस सामर्थ्य से सब का सुख बढ़ाया करे ॥१७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(सः) (नः) अस्माकम् (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (यज्यवे) सङ्गताय (वरुणाय) श्रेष्ठाय (मरुद्भ्यः) मनुष्येभ्यः (वरिवोवित्) परिचरणवेत्ता (परि) (स्रव) प्राप्नुहि ॥१७ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन्त्स मरुद्भ्यो न इन्द्राय यज्यवे वरुणाय वरिवोवित् संस्त्वं परिस्रव ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - येन विदुषा यावत्सामर्थ्यं प्राप्येत तेन तावता सर्वेषां सुखं वर्द्धनीयम् ॥१७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या विद्वानाने जितके सामर्थ्य प्राप्त केले, त्या सामर्थ्याने त्याने सर्वांचे सुख वाढवावे.