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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! मैं (ते) आप के जिस (उच्चा) ऊँचे (अन्धसः) अन्न से (जातम्) प्रसिद्ध हुए (दिवि) प्रकाश में (सत्) वर्त्तमान (उग्रम्) उत्तम (महि) बड़े (श्रवः) प्रशंसा के योग्य (शर्म) घर को (आ, ददे) अच्छे प्रकार ग्रहण करता हूँ, वह (भूमि) पृथिवी के तुल्य दृढ़ हो ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् मनुष्यों को चाहिये कि सूर्य का प्रकाश और वायु जिस में पहुँचा करे, ऐसे अन्नादि से युक्त बड़े ऊँचे घरों को बना के उन में बसने से सुख भोगें ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(उच्चा) उच्चम् (ते) तव (जातम्) निष्पन्नम् (अन्धसः) अन्नात् (दिवि) प्रकाशे (सत्) वर्त्तमानम् (भूमि) अत्र ‘सुपां सुलुक्’ [अ०७.१.३९] इति विभक्तेर्लुक्। (आ, ददे) गृह्णामि (उग्रम्) उत्कृष्टम् (शर्म) गृहम् (महि) महत् (श्रवः) प्रशंसनीयम् ॥१६ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन्नहं ते यदुच्चाऽन्धसो जातं दिवि सदुग्रं महि श्रवः शर्माददे तद्भूमीव भवतु ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिर्मनुष्यैः सूर्यकिरणवायुमन्त्यन्नादियुक्तानि महान्त्युच्चानि गृहाणि रचयित्वा तत्र निवासेन सुखं भोक्तव्यम् ॥१६।
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान माणसांनी अशी उंच घरे बांधावीत की, ज्यात सूर्याचा प्रकाश व हवा खेळावी, तसेच अन्नाचा साठाही असावा. अशा घरात निवास केल्यास सुख प्राप्त होते.