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अग्ने॒ त्वं नो॒ऽ अन्त॑मऽउ॒त त्रा॒ता शि॒वो भ॑वा वरू॒थ्यः᳖। वसु॑र॒ग्निर्वसु॑श्रवा॒ऽअच्छा॑ नक्षि द्यु॒मत्त॑मꣳ र॒यिं दाः॑ ॥४७ ॥ तं त्वा॑ शोचिष्ठ दीदिवः सु॒म्नाय॑ नू॒नमी॑महे॒ सखि॑भ्यः। स नो॑ बोधि श्रु॒धी हव॑मुरु॒ष्या णो॑ अघाय॒तः सम॑स्मात्॥४८ ॥

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पद पाठ

अग्ने॑। त्वम्। नः॒। अन्त॑मः। उ॒त। त्रा॒ता। शि॒वः। भ॒व॒। व॒रु॒थ्यः᳖। वसुः॑। अ॒ग्निः। वसु॑श्रवा॒ इति॒ वसु॑ऽश्रवाः। अच्छ॑। न॒क्षि॒। द्यु॒मत्त॑म॒मिति॑ द्यु॒मत्ऽत॑मम्। र॒यिम्। दाः॒ ॥४७ ॥ तम्। त्वा॒। शो॒चि॒ष्ठ॒। दी॒दि॒व॒ इति॑ दीदिऽवः। सु॒म्नाय॑। नू॒नम्। ई॒म॒हे॒। सखि॑भ्य इति॒ सखिऽभ्यः। सः। नः॒। बो॒धि॒। श्रु॒धी। हव॑म्। उ॒रु॒ष्य। नः॒। अ॒घा॒य॒तः। अ॒घ॒य॒त इत्य॑घऽय॒तः। सम॑स्मात्॥४८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:47


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥ फिर मनुष्यों को इस जगत् में कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) वेदवेत्ता पढ़ाने और उपदेश करने हारे विद्वान् ! आप (अग्निः) अग्नि के समान (नः) हम लोगों के (अन्तमः) समीपस्थ (त्राता) रक्षा करनेवाले (शिवः) कल्याणकारी (उत) और (वरूथ्यः) घरों में उत्तम (वसुश्रवाः) जिन के श्रवण में बहुत धन और (वसुः) विद्याओं में वसाने हारे हो, ऐसे (भव) हूजिये जो (द्युमत्तमम्) अतीव प्रकाशवान् (रयिम्) धन हम लोगों के लिये (अच्छ, दाः) भलीभाँति देओ तथा हम को (नक्षि) प्राप्त होते हो सो (त्वम्) आप हम लोगों से सत्कार पाने योग्य हो ॥४७ ॥ हे (शोचिष्ठ) उत्तम गुणों से प्रकाशमान (दीदिवः) विद्यादि गुणों से शोभायुक्त विद्वन् ! जो आप (नः) हम लोगों को (बोधि) बोध कराते (तम्) उन (त्वा) आप को (सुम्नाय) सुख और (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (नूनम्) निश्चय से हम लोग (ईमहे) याचते हैं (सः) सो आप (नः) हम लोगों के (हवम्) पुकारने को (श्रुधी) सुनिये और (समस्मात्) अधर्म के तुल्य गुण-कर्म-स्वभाववाले (अघायतः) आत्मा के अपराध का आचरण करते हुए दुष्ट, डाकू, चोर, लम्पट से हमारी (उरुष्य) रक्षा कीजिये ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सब के उपकारी वेदादि शास्त्रों के ज्ञाता, अध्यापक, उपदेशक, विद्वानों का सदैव सत्कार करें और वे सत्कार को प्राप्त हुए विद्वान् लोग भी सब के लिये उत्तम उपदेशादि अच्छे गुणों और धनादि पदार्थों को सदा देवें, जिससे परस्पर प्रीति और उपकार से बड़े-बड़े सुखों का लाभ होवे ॥४७ ॥ विद्यार्थी लोग पढ़ानेवालों के प्रति ऐसे कहें कि आप से जो हम लोगों ने पढ़ा है, उसकी परीक्षा लीजिये और हम को दुष्ट आचरण से पृथक् रखिये, जिससे हम लोग सब के साथ मित्र के समान वर्त्ताव रक्खें ॥४८ ॥ इस अध्याय में संसार के पदार्थों के गुणों का वर्णन, पशु आदि प्राणियों को सिखलाना पालना, अपने अङ्गों की रक्षा, परमेश्वर की प्रार्थना, यज्ञ की प्रशंसा, बुद्धि का देना, धर्म में इच्छा, घोड़े के गुण कहना, उसकी चाल आदि सिखलाना आत्मा का ज्ञान और धन की प्राप्ति होने का विधान कहा है, इससे इस अध्याय में कहे अर्थ की पिछले अध्याय में कहे हुए अर्थ के साथ एकता जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतपरमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये पञ्चविंशोऽध्यायः समाप्तः ॥२५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के सत्कर्त्तव्याः सन्तीत्याह ॥ पुनर्मनुष्यैरिह कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(अग्ने) वेदविदध्यापकोपदेशक (त्वम्) (नः) अस्माकम् (अन्तमः) निकटस्थः (उत) अपि (त्राता) पालकः (शिवः) कल्याणकारी (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ०६.३.१३५] इति दीर्घः। (वरूथ्यः) वरूथेषु गृहेषु साधुः (वसुः) विद्यासु वासयिता (अग्निः) पावक इव (वसुश्रवाः) वसूनि धनानि श्रवणे यस्य सः (अच्छ) अत्र निपातस्य च [अ०६.३.१३६] इति दीर्घः। (नक्षि) प्राप्नोषि। णक्षधातोरयं प्रयोगः। (द्युमत्तमम्) अतिशयेन प्रकाशवन्तम् (रयिम्) धनम् (दाः) दद्याः ॥४७ ॥ (तम्) (त्वा) त्वाम् (शोचिष्ठ) सद्गुणैः प्रकाशमान (दीदिवः) विद्यादिगुणैः शोभावन् (सुम्नाय) सुखाय (नूनम्) निश्चितम् (ईमहे) याचामहे (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (सः) (नः) अस्मान् (बोधि) बोधय (श्रुधी) शृणु (हवम्) आह्वानम् (उरुष्य) रक्ष (नः) अस्माकम् (अघायतः) आत्मनोऽघमाचरतः (समस्मात्) अधर्मेण तुल्यगुणकर्मस्वभावात्॥४८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! त्वमग्निरिव नोऽन्तमस्त्राता शिव उत वरूथ्यो वसुश्रवा वसुर्भव। यो द्युमत्तमं रयिमस्मभ्यमच्छ दाः। अस्मान्नक्षि स त्वमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥४७ ॥ हे शोचिष्ठ ! दीदिवो विद्वन् यस्त्वं नो बोधि तन्त्वा सुम्नाय सखिभ्यो नूनं वयमीमहे। स त्वन्नो हवं श्रुधि समस्मादघायत उरुष्य च ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वोपकारिणो वेदादिशास्त्रवेत्तारोऽध्यापकोपदेशका विद्वांसः सदैव सत्कर्त्तव्याः। ते च सत्कृताः सन्तः सर्वेभ्यः सदुपदेशाद्युत्तमगुणान् धनादिकं च सदा प्रयच्छेयुः। येन परस्परस्य प्रीत्युपकारेण महान् सुखलाभः स्यादिति ॥४७ ॥ विद्यार्थिनोऽध्यापकान् प्रत्येवं वदेयुर्भवन्तो यदस्माभिरधीतं तत्परीक्षन्ताम्। अस्मान् दुष्टाचारात्पृथग् रक्षन्तु यतो वयं सर्वैः सह मित्रवद्वर्त्तेमहि ॥४८ ॥ अस्मिन्नध्याये सृष्टिस्थपदार्थगुणवर्णनं पश्वादिप्राणिनां शिक्षारक्षणं स्वाङ्गरक्षणं परमेश्वरप्रार्थनं यज्ञप्रशंसा प्रज्ञाप्रापणं धर्मेच्छाऽश्वगुणकथनं तच्छिक्षणमात्मज्ञानधनप्रापणयोर्विधानं चोक्तमत एतदध्यायोक्तार्थस्य पूर्वाध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सर्वांवर उपकार करणारे वेद शास्राचे ज्ञाते, अध्यापक, उपदेशक, विद्वान यांचा सदैव सन्मान करावा व विद्वानांनीही सर्वांना उत्तम उपदेश करून चांगले गुण व ज्ञानरूपी धन इत्यादी पदार्थ सदा द्यावेत. ज्यामुळे परस्परात प्रेम वाढेल व उपकार घडेल व महान सुख प्राप्त होईल.