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इ॒मा नु कं॒ भुव॑ना सीषधा॒मेन्द्र॑श्च॒ विश्वे॑ च दे॒वाः। आ॒दि॒त्यैरिन्द्रः॒ सग॑णो म॒रुद्भि॑र॒स्मभ्यं॑ भेष॒जा क॑रत्। य॒ज्ञं च॑ नस्त॒न्वं᳖ च प्र॒जां चा॑दि॒त्यैरिन्द्रः॑ स॒ह सी॑षधाति ॥४६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मा। नु। क॒म्। भुव॑ना। सी॒ष॒धा॒म॒। सी॒स॒धा॒मेति॑ सीसधाम। इन्द्रः॑। च॒। विश्वे॑। च॒। दे॒वाः। आ॒दि॒त्यैः। इन्द्रः॑। सग॑ण॒ इति॒ सऽग॑णः। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। अ॒स्मभ्य॑म्। भे॒ष॒जा। क॒र॒त्। य॒ज्ञम्। च॒। नः॒। त॒न्व᳖म्। च॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। च॒। आ॒दि॒त्यैः। इन्द्रः॑। स॒ह। सी॒ष॒धा॒ति॒। सि॒स॒धा॒तीति॑ सिसधाति ॥४६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:46


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन धनवान् होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् राजा (च) और (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (च) भी (इमा) इन समस्त (भुवना) लोकों को धारण करते, वैसे हम लोग (कम्) सुख को (नु) शीघ्र (सीषधाम) सिद्ध करें वा जैसे (सगणः) अपने सहचारी आदि गणों के साथ वर्त्तमान (इन्द्रः) सूर्य (आदित्यैः) महीनों के साथ वर्त्तमान समस्त लोकों को प्रकाशित करता, वैसे (मरुद्भिः) मनुष्यों के साथ वैद्यजन (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (भेषजा) ओषधियाँ (करत्) करे, जैसे (आदित्यैः) उत्तम विद्वानों के (सह) साथ (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सभापति (नः) हम लोगों के (यज्ञम्) विद्वानों के सत्कार आदि उत्तम काम (च) और (तन्वम्) शरीर (च) और (प्रजाम्) सन्तान आदि को (च) भी (सीषधाति) सिद्ध करे, वैसे हम लोग सिद्ध करें ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के तुल्य नियम से वर्त्ताव रखके शरीर को नीरोग और आत्मा को विद्वान् बना तथा पूर्ण ब्रह्मचर्य कर स्वयंवरविधि से हृदय को प्यारी स्त्री को स्वीकार कर, उस में सन्तानों को उत्पन्न कर और अच्छी शिक्षा देके विद्वान् करते हैं, वे धनपति होते हैं ॥४६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के श्रीमन्तो भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

(इमा) इमानि (नु) सद्यः (कम्) सुखम् (भुवना) भुवनानि (सीषधाम) साधयेम (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (च) (विश्वे) सर्वे (च) (देवाः) विद्वांसः सभासदः (आदित्यैः) मासैः (इन्द्रः) सूर्यः (सगणः) गणैः सह वर्त्तमानः (मरुद्भिः) मनुष्यैः सह (अस्मभ्यम्) (भेषजा) भेषजानि (करत्) कुर्यात् (यज्ञम्) विद्वत्सत्कारादिकम् (च) (नः) अस्माकम् (तन्वम्) शरीरम् (च) (प्रजाम्) सन्तानादिकम् (च) (आदित्यैः) उत्तमैर्विद्वद्भिः सह (इन्द्रः) ऐश्वर्यकारी सभेशः (सह) (सीषधाति) साधयेत्॥४६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या यथेन्द्रश्च विश्वे देवाश्चेमा विश्वा भुवना धरन्ति, तथा वयं कं नु सीषधाम। यथा सगण इन्द्र आदित्यैः सह सर्वांल्लोकान् प्रकाशयति, तथा मरुद्भिः सह वैद्योऽस्मभ्यं भेषजा करत्। यथाऽऽदित्यैः सहेन्द्रो नो यज्ञं च तन्वं च प्रजां च सीषधाति, तथा वयं साध्नुयाम ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्यवन्नियमेन वर्तित्वा शरीरमरोगमात्मानं विद्वांसं संसाध्य पूर्णं ब्रह्मचर्यं कृत्वा स्वयं वृतां हृद्यां स्त्रियं स्वीकृत्य तत्र प्रजा उत्पाद्य सुशिक्ष्य विदुषी कुर्वन्ति, ते श्रियः पतयो जायन्ते ॥४६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे नियम पाळतात व शरीर निरोगी ठेवून आत्मज्ञान प्राप्त करतात, तसेच पूर्ण ब्रह्मचर्याचे पालन करतात व स्वयंवर विधीने अंतःकरणाला प्रिय वाटेल अशा स्रीचा स्वीकार करून संतान उत्पन्न करतात व त्यांना चांगले शिक्षण देऊन विद्वान करतात ते धनवान बनतात.