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चतु॑स्त्रिꣳशद्वा॒जिनो॑ दे॒वब॑न्धो॒र्वङ्क्री॒रश्व॑स्य॒ स्वधि॑तिः॒ समे॑ति। अच्छि॑द्रा॒ गात्रा॑ व॒युना॑ कृणोतु॒ परु॑ष्परुरनु॒घुष्या॒ वि श॑स्त ॥४१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

चतु॑स्त्रिꣳश॒दिति॒ चतुः॑ऽत्रिꣳशत्। वा॒जिनः॑। दे॒वब॑न्धो॒रिति॑ दे॒वऽब॑न्धोः॒। वङ्क्रीः॑। अश्व॑स्य। स्वधि॑ति॒रिति॒ स्वऽधि॑तिः। सम्। ए॒ति॒। अच्छि॑द्रा। गात्रा॑। व॒युना॑। कृ॒णो॒तु॒। परु॑ष्परुः। परुः॑परु॒रिति॒ परुः॑ऽपरुः। अ॒नु॒घुष्येत्य॑नु॒ऽघुष्य॑। वि। श॒स्त॒ ॥४१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:41


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे घुड़चढ़ा चाबुकी जन (देवबन्धोः) जिसके विद्वान् बन्धु के समान उस (वाजिनः) वेगवान् (अश्वस्य) घोड़े की (चतुस्त्रिंशत्) चौंतीस (वङ्क्रीः) टेढ़ी-मेंढ़ी चालों को (सम्, एति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता और (अच्छिद्रा) छेद-भेद रहित (गात्रा) अङ्ग और (वयुना) उत्तम ज्ञानों को (कृणोतु) करे, वैसे उस के (परुष्परुः) प्रत्येक मर्मस्थान को (अनुघुष्य) अनुकूलता से बजाकर (स्वधितिः) वज्र के समान वर्त्तमान तुम लोग रोगों को (वि, शस्त) विशेषता से छिन्न-भिन्न करो ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे घोड़ों को सिखानेवाला चतुर जन चौंतीस चित्र-विचित्र गतियों को घोड़े को पहुँचाता और वैद्यजन प्राणियों को नीरोग करता है, वैसे ही और पशुओं की रक्षा से उन्नति करनी चाहिये ॥४१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(चतुस्त्रिंशत्) शिक्षणानि (वाजिनः) वेगवतः (देवबन्धोः) देवा विद्वांसो बन्धुवद्यस्य तस्य (वङ्क्रीः) कुटिला गतीः (अश्वस्य) (स्वधितिः) वज्र इव वर्त्तमानः (सम्) सम्यक् (एति) गच्छति (अच्छिद्रा) छिद्ररहितानि (गात्रा) गात्राणि (वयुना) वयुनानि प्रज्ञानानि (कृणोतु) (परुष्परुः) मर्ममर्म (अनुघुष्य) आनुकूल्येन घोषयित्वा। अत्र संहितायाम् [अ०६.३.११४] इति दीर्घः। (वि) विशेषेण (शस्त) छिन्त ॥४१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽश्वशिक्षको देवबन्धोर्वाजिनोऽश्वस्य चतुस्त्रिंशद्वङ्क्रीः समेत्यच्छिद्रा गात्रा वयुना कृणोतु, तस्य परुष्परुरनुघुष्य स्वधितिरिव रोगान् यूयं विशस्त ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा चतुरोऽश्वशिकक्षश्चतुस्त्रिंशद् विचित्रा गतीरश्वं नयति, वैद्यश्चारोगिणं करोति, तथैवान्येषां पशूनां रक्षणेनोन्नतिः कार्या ॥४१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जसे चतुर अश्वशिक्षक घोड्यांना चौतीस विविध गती शिकवितात व वैद्य प्राण्यांना निरोगी करतात, तसेच इतरही पशूंचे रक्षण करावे.